Monday, September 3, 2007

पल को अपनाओ

वक़्त के पिंजरे में क़ैद
कुछ दिन , महीने, साल
पुराने हैं बदरंग
नए कुछ बेहाल
बस ये एक पल है बाहर
आओ, इसी से प्यार कर लें
अपनी यादें भर इसमे
इसको ही अपना कर लें

ये पल एक पुल है
एक सीमाहीन अँधेरे से
एक खत्म ना होने वाली चुप्पी तक
बिछा हुआ है
रोशनी के नन्हे से तार पर
तन के खिंचा हुआ है
ये पल चुप्पी से पहले की हूक है
कविता है , कवि भी
फिर भी कितना मूक है
आओ, इसी को अपनी आवाज़ कर लें
अपनी यादें भर इसमे
इसको ही अपना कर लें

No comments: