Sunday, June 2, 2013

ek ghazal

दौर-ए -रहगुज़र ये  बदलता क्यों नही

शाम के साये में भी ढलता क्यों नही


हर आह में दर्द का ये सबब क्या है
दिल में जो जमा है वो पिघलता क्यों नही



हर  रंजिश वो सुनें ये ज़रूरी तो नही

पर  आँखों में ये कतरा  संभलता क्यों नही

 
खुशी भी अब रवायत सी हो गयी शायद

वरना बहार आने पर  जी मचलता क्यों नही



sapno kaa raag

सपनो का राग

सुनसान रात  में मालकौंस के कांपते कोमल स्वर की तरह
सुना है  तुम्हारे हर सपने कोहमने  हमने  ज़िन्दगी की तरह
पर सपने खामोशी की छाँव में पनपते हैं,  खुश रहते हैं
इसीलिए हम भी मन मसोस कर बस चुप रहते हैं
मन करता है तुम्हारे हर सपने को सहेज लूं अपनी आँखों में
और फिर कुछ कहने की ज़रुरत ही न रहे 
बस आँखों में खेलें अब जो हों हमारे सपने
होकर रहे जो  इतने अपने
एक तान से बंधे हुए सुर की तरह
आओ गायें इन सपनो को
अपने खामोश जीवन गीत की तरह