Sunday, September 21, 2008

पहचान के दाम

कभी धर्म ,कभी समाज, कभी देश
कभी और कुछ नही

तो सिर्फ भाषा या वेश

जिसने भी दी कोई पहचान

मैं समझता था उसका अहसान
पर बाद मे ये भेद जाना
उनकी प्रखर बुद्धि को पहचाना
आसान किश्तों के लोन की तरह
ये पहचान की एक मुश्त रकम देते हैं
आपको पता भी नही चलता
कब आत्मा को गिरवी रख लेते हैं
अब वो रीति-नीति के नये प्रलोभन फेंकते हैं
उनमे हँसते और फँसते हुये हम

दुनिया अब दूसरे के चश्मे से देखते हैं

Saturday, September 6, 2008

अपनों सी धरती...

कई बार मन ये भी करता है

के चलते रहे

बिना रुके, बिना मुडे

और पहुँच जाएँ वहाँ

जहाँ ये धरती चुपके से सूरज को निगल जाती है

पर वो जगह बस नज़र आती है

हर बार पास आने पर

जाने क्यों क़दमों की गिरफ्त से फिसल जाती है

मैं हैरान होता हूँ

ये मानों किसी मनचले सपने सी हो गयी

पास, दूर और फिर पास लगना

मिलके हँसना

हँसकर बिछडना

धरती भी मेरे अपनों सी हो गयी