कभी धर्म ,कभी समाज, कभी देश
कभी और कुछ नही
तो सिर्फ भाषा या वेश
जिसने भी दी कोई पहचान
मैं समझता था उसका अहसान
पर बाद मे ये भेद जाना
उनकी प्रखर बुद्धि को पहचाना
आसान किश्तों के लोन की तरह
ये पहचान की एक मुश्त रकम देते हैं
आपको पता भी नही चलता
कब आत्मा को गिरवी रख लेते हैं
अब वो रीति-नीति के नये प्रलोभन फेंकते हैं
उनमे हँसते और फँसते हुये हम
दुनिया अब दूसरे के चश्मे से देखते हैं