Friday, December 26, 2008

पिंजरों का दर्द

पिंजरों के भी जज़्बात होते हैं

वो भी परिंदों के लिए रोते हैं

बस परिंदों के शोर में कहीं

अपनी दबी आवाज़ खो देते हैं

किसी का आशियाँ कहला सकें

इसलिए कितना जतन करते हैं

पर परिंदे हैं कि हर वक़्त उसे

अपना कहने से मुकरते हैं

कभी कभी हताश गुस्से में

शिकायत भी करते होंगे

फिर अपनी शिकायतों का क़र्ज़

अपने ही दर्द से भरते होंगे

हर जतन करते हैं ये

कभी हँसते, कभी रोते, कभी जिंदगी के गीत गाते हैं

अब कैसे समझाऊँ मैं इनको

ये क्यों कभी आसमान नही बन पाते हैं

Saturday, November 29, 2008

आतंक के साये में...

पिछले तीन दिनों से लगातार टेलिविज़न पर मुंबई में चल रही कार्यवाही देख रहा हूँ। देश से दूर बैठा हुआ सिर्फ़ किसी तरह से मन की दुश्चिंता को मिटाने की कोशिश कर रहा हूँ। मुंबई में रहने वाले अपने मित्रो से उनकी खैर ख़बर जानकर आश्वस्त हो रहा हूँ की इस बार हताहत में मेरा कोई परिचित नही है, इस बार मुझे सिर्फ़ सांत्वना देनी है, इस बार मेरी रोने की बारी नही।

मगर कब तक.....? कितने दिनों भाग्य के साथ आँख मिचौली चलेगी? मृत्यु से कई गुणा भयानक मृत्यु के आतंक के साये में कब तक अपनी सहिष्णुता, सहनशीलता, विवेक को कायम रख पायेगा ये समाज? अविश्वास के राज्य में कितने प्रतिबन्ध लगाकर हम स्वयं को सुरक्षित कर पायेंगे? और इस सुरक्षा का मोल इन प्रतिबंधो से नही बल्कि इन प्रतिबंधो से आहत व्यक्तिगत स्वाधीनता से चुकायेंगे।

बोध शक्ति को सुन्न करने वाली इन घटनाओं के सम्मुखीन होते हुए भी शायद हमें सोचना पड़ेगा की हम आख़िर ये किसका मूल्य चुका रहे हैं? सत्तारूढ़ धृतराष्ट्रों के लोभ और महत्वाकाँक्षा के पाश में दम तोड़ती नीतियों का परिणाम हम भुगत रहे हैं। और सिर्फ़ यही नही....राजनीति के प्रति गहरी उदासीनता और उसे अकर्मण्य नपुंसकों के भरोसे रख देने का जो अपराध हमने किया है, उसका मूल्य भी हमें अपने रक्त से ही शायद चुकाना होगा।

Sunday, September 21, 2008

पहचान के दाम

कभी धर्म ,कभी समाज, कभी देश
कभी और कुछ नही

तो सिर्फ भाषा या वेश

जिसने भी दी कोई पहचान

मैं समझता था उसका अहसान
पर बाद मे ये भेद जाना
उनकी प्रखर बुद्धि को पहचाना
आसान किश्तों के लोन की तरह
ये पहचान की एक मुश्त रकम देते हैं
आपको पता भी नही चलता
कब आत्मा को गिरवी रख लेते हैं
अब वो रीति-नीति के नये प्रलोभन फेंकते हैं
उनमे हँसते और फँसते हुये हम

दुनिया अब दूसरे के चश्मे से देखते हैं

Saturday, September 6, 2008

अपनों सी धरती...

कई बार मन ये भी करता है

के चलते रहे

बिना रुके, बिना मुडे

और पहुँच जाएँ वहाँ

जहाँ ये धरती चुपके से सूरज को निगल जाती है

पर वो जगह बस नज़र आती है

हर बार पास आने पर

जाने क्यों क़दमों की गिरफ्त से फिसल जाती है

मैं हैरान होता हूँ

ये मानों किसी मनचले सपने सी हो गयी

पास, दूर और फिर पास लगना

मिलके हँसना

हँसकर बिछडना

धरती भी मेरे अपनों सी हो गयी

Thursday, August 7, 2008

मौत...एक लम्हे का बदलाव

दिन बीता, रात गयी, फिर नया दिन
कई दिनों से नीँद के इँतज़ार मे बैठी आँखें
आख़िर आज थककर सो गयीं
ख़्वाबों की टिमटिमाती दुनिया में
ये धधकती धडकती दुनिया खो गयी....

इस मखमली अँधेरे लम्हे से पहले
आखिरी बारकुछ साये से आये थे नज़र
जैसे कुछ बीते मौसम, कुछ साल, कुछ महीने
कुछ कहना भूल गये थे ताबा
लौटकर वही बताने आये थे

ठिठके, मुडे, रूके

सोचा, मुडे, चले
जो कहा नही तब भी

बताया नही अब भी

मगर उनके इसी ठिठकने मे पता चला

इन आँखों को
अब उनको भी खोने का सफर करना है

इन बीते वक़्त के टुकडो को लेकर साथ

किसी खाली ख्वाब को भरना है
बस फर्क सिर्फ इतना होगा
खाली से ख्वाब हक़ीक़त होंगे
भरी सी हक़ीक़त सपना होगा

Sunday, August 3, 2008

शहरी मन भी बदलता है.....(शेष)

...आगे
"संगच्छध्वं संवंदध्वं संवौ मनांसि जानताम् ॥ "
हम साथ चलें , साथ बोलें और एक दूसरे के मन को समझे


शक्तिनगर की छोटी-बड़ी सुंदर चीज़ें देखते हुए समय बीत रहा था। इस जगह रहते हुए कई नए लोगो से मुलाक़ात हुयी, पहचान बढी और वो हमेशा के लिए यादों में घर कर गए। किसका नाम लूँ और किसे छोडूं.....सभी अपने आप में अनोखे थे। सबसे पहले हमारा हॉस्टल...जहाँ बेलाग बेपरवाह कुछ प्रशिक्षु रहते थे (हम भी उन्ही में थे)। सब अपने घर परिवारों से दूर इस जगह पर थे और कुछ दिनों के बाद वो ही एक दूसरे का परिवार बन जाते थे। कई बार लगता है की परिवार की सीमा केवल संबंधो पर ख़त्म नही होती... बल्कि वो सिर्फ़ पहला दायरा है। हम इस दायरे को फैलाते हैं ताकि एकाकीपन के कलंक से बचे रहे। खैर...तो ये प्रशिक्षु दिन में प्रशिक्षको की खामियां देखने में लगे रहते और शाम को क्लब में आने वाली सुंदरियों के गुन देखने में। रात में हॉस्टल में २९ की बाजी होती थी। जिन्हें ताश का ये खेल आता है , वो जानते हैं की ६ लाल या ६ काले खुलने में रात बीत जाती पर मुए पत्ते हैं जो खुलते ही नही। एक दूसरे की टांग खींचते हुए, लड़ते हुए, मेस के खाने को धिक्कारते हुए, घुमते और झूमते हुए कुछ अजनबी से लोगों ने ६ माह गुजारे और उस बियाबान के बीच अपना शहर बसा लिया और ६ माह बाद शहर से नए सिरे से उखड रहा हूँ। पहले सोचता था की मेरा मन शहर में बसता है पर नही...शहर शायद मन में बसता है।

यहाँ पर एक नए साहब आए थे। संयोगवश ये साहब हमारे ही विभाग में थे। नाम के लिए इनके पास कई डिग्री थी पर उनकी असलियत का भान हमें बाद में हुआ। एक दिन सुबह सुबह ये श्रीमान अपने सुपुत्र (सभ्यता की खातिर ही सही) को लेकर हमारे कमरे में और हमें आदेशात्मक लहजे में अनुरोध किया कि हम उनके सुपुत्र को क्लास ११ की गणित पढा दें। अब हमने स्वयं ही गणित काफ़ी तिकड़म लड़ा कर पास की थी....तो अपने ज्ञानी इमेज की इस तरह पोल कैसे खुलने देते? सो हमने उन्हें बताया कि हमने तो अर्थशास्त्र में स्नातक किया है अर्थात कला स्नातक हैं और हमारे देश में सभी जानते हैं कि कला स्नातक होना आपकी हीन और न्यून बौद्धिक क्षमता का परिचय है। सो उन्होंने हमारे हाथों में अपने सुपुत्र की बागडोर देना उचित नही समझा और हमें भी मुक्ति मिली। पर झूठ के पाँव नही होते.....कमबख्त इसीलिए भाग नही सकता और पकडा जाता है। एक दिन वहाँ के लोकल इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय में पत्राचार छात्रों को अर्थशास्त्र पढा रहे थे। इससे पहले कि आप कोई ग़लत धारणा बना लें...याद करवा दूँ की अन्धो में मोतियाबिन्द वाला राजा। बोर्ड पर एक समाकलन गणित का सवाल कस रहे थे और इतने में वही साहब पधार गए। उनकी कई डिग्रियों का ही परिणाम था कि वो इसे गणित के रूप में पहचान नही पाये वरना प्रशिक्षण पास करना कठिन हो जाता।

शक्तिनगर में एक और चीज़ दिखी। वहाँ पर आते-जाते लोग मिलते तो उनके पास आपकी तरफ़ देखकर मुस्कुराने का समय होता था। अक्सर दो घडी रूककर आपका हाल पूछने का भी समय निकाल लेते थे। शहरी मन के लिए समय का ये अपव्यय बड़ी विडम्बना है पर हर अपव्यय की तरह...ये मन को बहुत सुख देता है। आजकल के आधुनिक युग में जहाँ किसी रेस्तरां में खिलाना आतिथ्य की पराकाष्ठा है वहाँ पर ये लोग अब भी घर पर बुलाते थे। बेचारे कुंवारे प्रशिक्षुओं पर दया करते हुए अक्सर छुट्टी के दिन कोई सीनियर अपने घर पर बुलाकर दावत देते थे और हॉस्टल में रहे हुए सभी प्राणी जानते हैं कि ऐसी दावतों को ठुकराना घोर मूर्खता है और हम कभी भी इस मूर्खता से ग्रसित नही हुए।

इस छोटी सी जगह पर रहते हुए देखा कि ये बड़ी समस्याओं का समाधान कैसे करते हैं? भूख कि समस्या का समाधान है रोज़ मौत से जूझना। कोयला खदानों में होते धमाको से बचते हुए कोयला बीनने की कोशिश, जो बाज़ार में बेचकर रोटी का जुगाड़ कर सके। ज़ख्मी या बीमार होने पर कंपनी हॉस्पिटल में दया पाने की कातर प्रार्थना। शाम को आने वाली एक ट्रेन के इन्तेज़ार में सुबह से रिक्शा लेकर खड़े रहना। इन सबके बीच नज़र भर कर रिहंद बाँध में डूबे हुए अपने उस पुराने गाँव कि दिशा में ताकना जैसे वोह गाँव फिर उभर आयेगा। ऊँचे उठे ताप बिजली घर के चिमनियों के धुँए में किसी सपने को तलाशना। कालोनी के कूडे से बीनी हुयी प्लास्टिक कि पन्नियों से झोंपडे कि छत को टपकने से बचाना। आँखों के नीचे बढ़ती लकीरों कि जुबानी पता चलता है कि वहाँ कितने आंसू चले होंगे।

इस ६ माह के दायरे में शक्तिनगर ने बहुत कुछ सिखाया। इस बिजली घर को देखकर शहरी मन अपने विद्युत् आलोकित शहर की कीमत समझता है.....सच है...शहरी मन भी बदलता है।

ॐ सहनानववतु सहनौ भुनक्तु सहवीर्य करवावहैः। तेजस्विना वधीतमस्तु मा विद्विषा वैः ।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः

Saturday, July 26, 2008

शहरी मन भी बदलता है....(४)

.....आगे
अरन्याण अरन्याण्यसौ या परेव नश्यसि। कथा ग्रामं न पर्छसी न तवा विन्दति अ३ न॥ (ऋग्वेद १०.१४६)
हे वनों और वन्य जीवों के देवी, जो आंखों से ओझल हो जाती हो। क्या कारण है कि तुम लोकालय से दूर रहती हो, क्या तुम्हे भय नही होता?

पुरातन ऋषियों का यही प्रश्न मन में गूँज रहा था जब मैंने शक्तिनगर में ज्वाला देवी का मन्दिर देखा। एक पहाडी के गोद में, एक छोटे से पहाडी नाले के पार बसा हुआ एक सुंदर सा छोटा सा मन्दिर। मन्दिर ज़रूर छोटा सा है पर इससे जुडी हुई आस्था बहुत बड़ी। शहर में मंदिरों में भव्यता का एहसास होता है, यहाँ पर दिव्यता का आभास हुआ। एक नीम के पेड़ के नीचे भगवती ज्वालामुखी का प्रतीक और उसी कि भक्ति-श्रद्धा के साथ पूजा। लोककथा अनुसार यहाँ पर भगवती सती का कोई अंग गिरा था और तब से यहाँ देवी कि प्रतिष्ठा है। पहले वहाँ की जनजातियों द्वारा पूजित देवी को किसी राजा ने अपने महल में ले जाने कि कोशिश कि थी। उन्होंने सोचा कि शहर की सुविधाओं से माँ की आँखें चुंधिया जायेंगी पर जैसा इस श्लोक में इंगित है ....भगवती को अपना वन और वन्य जीवन ज़्यादा अच्छा लगा और वो यहीं रह गयीं। शायद वैदिक काल से आजतक वो अपने विचार नही बदल पायीं!

अगर हम ध्यान से देखें तो हमारे ज्यादातर तीर्थ किसी प्राकृतिक रूप से सुंदर एवं महत्वपूर्ण जगहों पर हैं। शायद हमारे पुरातन मनीषी यही तरीका निकाल पाये थे मनुष्य को प्रकृति का महत्व समझाने का और इस प्राकृतिक संपदा को मानव के दानवी लोभ से बचाने का। पर जबसे मनुष्य ने इन तीर्थो से कमाई की सम्भावना देखी है तो सुविधा के नाम पर इन्हे नष्ट करने में कोई कसर नही उठा रखी। आजकल तीर्थो में अट्टालिका वन देखकर लगता है कि माँ ज्वालामुखी ने शक्तिनगर के जंगलो में रहकर ठीक ही किया। इस बीहड़ में कम से कम उनका एक टुकडा वन तब भी सुरक्षित था।

एक छोटा सा लाल रंग कई दीवारों वाला मन्दिर जिसके हर कोने में लाल कपड़े में बंधे नारियल। ये नारियल लोगों की इच्छाएं हैं जो माँ की आंखों के सामने रहकर उन्हें याद दिलाते हैं कि उन्हें कितना सारा काम करना है। किसीको संतान, किसीको धन, किसीको नौकरी, किसीको फसल.....सबने अपनी अपनी बात भगवती के सामने रख दी है। इस चीज़ में शहरी मन ग्रामीण के साथ एक है। चमत्कार को नमस्कार है और उस नमस्कार के बदले जीवन को चमत्कारिक रूप से सुखमय कर लेने की इच्छा और आशा। खैर, शक्तिनगर के निवासी इन्हे काफी मानते हैं और वहाँ आने वाले हर व्यक्ति को दर्शन की सलाह भी देते हैं। साल में दो नवरात्रियों के समय यहाँ एक मेला भी लगता है। चूड़ी-बिंदिया, महावर-मेहंदी से लेकर बर्तन-कपडा और झूले....सब है इस मेले में। इस आस्था के मेले में खरीदारी भी होती है और आँखें भी चार होती हैं। माँ किसको क्या दे दे.....कोई भरोसा नही। बोलो ज्वालामाई की....जय ।

शहरी मन सोचता है कि इस छोटी जगह पर क्या होगा देखने के लिए! पर शक्तिनगर आकर पता चला की जगह छोटी छोटी जगहों में कितना कुछ छिपा हुआ है। यहाँ संयंत्र के सामने गोबिंद बल्लभ पन्त सागर है। ये रिहंद बाँध के कारण बना हुआ एक बहुत बड़ा जलाशय है। जलाशय कहकर इसके बृहत् परिमाण को समझा नही पाऊंगा। कलकल करते हुए पानी से भरा हुआ एक बहुत बड़ा जलाशय। शहर के टैप से सुबह शाम टपकती पानी की क्षीण धार देखने वाली आंखों के लिए ये दृश्य कैसा था...ये शायद शब्दों में समझा नही पाऊंगा। वर्षा काल में पानी और बढ़ गया। पूर्ण कैसे और पूर्ण होता है...मेरे लिए ये उसका जीवंत उदहारण था। पानी बढ़ते ही जलाशय कि गंभीरता भी मानो बढ़ जाती थी जैसे उसे अपनी अधिक जिम्मेदारियों का ज्ञान हो। शहरी मन अब गमले में लगे पौधे और रास्तो पर ठहरे पानी से आगे की प्रकृति देखने के लिए अभ्यस्त हो रहा था।

....क्रमशः

Friday, July 25, 2008

शहरी मन भी बदलता है....(३)

....आगे

"समौ चिद धस्तौ न समं विविष्टः सम्मातरा चिन नसमं दुहाते ।यमयोश्चिन न समा वीर्याणि जञाती चित्सन्तौ न समं पर्णीतः ॥" ऋग्वेद (१०.११७)

दोनों हाथ एक जैसे हैं, पर उनके द्वारा किया गया श्रम अलग है, दो गाय यद्यपि एक ही माता से जन्म लें, पर उनकी दूध देने की क्षमता अलग है। जुड़वा बच्चो का वीरत्व एक जैसा नही होता इसी तरह दो आत्मीयों के धन और साधन भी अलग होते हैं।

जहाँ कुछ ज़मीन जाने के बाद हताश होकर बैठ गए वहीं कुछ ऐसे लोग भी मिले जिन्होंने इसे एक नया मौका माना और इससे लाभ उठाने की सोची। ऐसे ही व्यक्ति का नाम शक्तिनगर के हर व्यक्ति को पता है...और वो नाम है मोती।

हॉस्टल में आने के तुंरत बाद लोगो ने मोती के ढाबे की तारीफ़ कर दी। सन्डे का डिनर मोती के ढाबे पर ...और ये एक परम्परा सी थी। हर नए आने वाले को बड़ी भक्ति श्रद्धा के साथ मोती के ढाबे का माहात्म्य बताया जाता और पहले ही रविवार को दर्शन के लिए ले जाया जाता था। सो रविवार आया और हमें भी ले जाया गया। रेलवे स्टेशन के पास एक टीन के छप्पर वाला ढाबा और जहाँ बहुत सी बेंच रखी थी। लगता था पूरा शक्तिनगर यहीं आया है। हमारे शहरी मन ने नाक-भौं सिकोडी और मन ही मन दिल्ली के चमकदार रेस्टोरेंट को याद किया। मेनू कार्ड नदारद था और फिक्सड थाली। खैर, थाली मंगवायी गयी.....गरम गरम रोटी, खूब कसकर बनायी हुयी अरहर की दाल और उसमे घी, आलू गोभी की सब्जी और रायता। बहुत ही सीधा सपाट खाना पर स्वाद ठीक उन दिल्ली के चमकदार रेस्टोरेंट जैसा नही था.....बल्कि लगा की माँ ने दिल्ली से पैक करके भेजा हो। इतने में एक अधेढ़ सा आदमी आया, जिसने घुटने तक की धोती पहनी थी और एक सफ़ेद सी शर्ट। बहुत विनय के साथ सबको पानी दे रहा था, कहीं किसी को सलाद। हमारी बेंच पर आकर रुका...हमारी थाली की रोटी को छुआ और फिर आवाज़ लगायी..."ऐ बबुआ...देख इनको ठंडा रोटी परोस दिया है...एक गरम रोटी लाओ" और एक गरम रोटी मंगवाकर उसपर घी लगाकर मुझे दिया और कहा..."काहे नही कहा की रोटी ठंडा है..हम नही देखते तो ऐसे ही खा जाते"। ना जाने क्यों...मेरी शहरी आँखें कुछ नम सी हो गयी और अचानक माँ की याद आने लगी।

बाद में पता चला की यही मोती है। जब ये ताप बिजली घर बना तो मोती के पिताजी की ज़मीन भी ले ली गयी। इन लोगो ने कोई नौकरी नही मांगी बल्कि मोती के पिताजी ने वहाँ बसी कालोनी में दूध बेचने का काम शुरू किया। मोती ने भी अपने पिटा के साथ काम शुरू किया और फिर एक चीज़ देखी। उन दिनों बहुत से लोग वहाँ बिना अपने परिवार के रहते थे और खूब सारे प्रशिक्षु तो थे ही। इन सबकी एक समस्या थी....खाना। तो मोती ने एक ढाबा खोला और वहाँ पर एकदम घर जैसा खाना बनाकर खिलाने लगा। अंधा क्या चाहे...दो आँखें....बस कालोनी के लोगो को सस्ते में अच्छा खाना मिल जाता और वहाँ पर बैठकर दो सुख-दुःख की बातें भी हो जाती। साल बीतते गए पर मोती ने न अपना मेनू बदला ना लोगो से अपना व्यवहार। शक्तिनगर में मोती की परम्परा पड़ चुकी थी। अब हर आने वाले को लोग उसके ढाबे पर ले आते और बाकी मोती महाराज अपनी गरमागरम रोटी से उसे बाँध लेते। इश्वर ने मोती को काफ़ी सुपुत्र दिए जिनकी गिनती ईकाई में नही दहाई में है। सो आज मोती ने उनको भी ढाबे खोलकर दे दिए हैं। साथ ही अब मोती के पास ट्रक हैं जिन्हें कालोनी के लोग ट्रान्सफर पर जाते समय किराये पर ले सकते हैं।

इस कंपनी ने जब २५ साल पूरे किए तो प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता निर्देशक श्री श्याम बेनेगल को एक फ़िल्म बनाने के लिए कहा गया और उन्होंने भी अपनी रिसर्च के बाद मोती के चरित्र को फ़िल्म में ढाला और मोती का अभिनय किया प्रसिद्द अभिनेता श्री रघुवीर यादव ने । मोती महाराज ने अपने पिता के चरित्र का अभिनय किया.


मोती अनपढ़ है...उसे अंग्रेज़ी तो नही आती। उसने एम. बी. ऐ. भी नही किया और शायद इसी वजह से इतना आगे बढ़ पाया। हमारे प्रबंधन संस्थान केवल प्रबंधक बनाते हैं...अपने पैरो पर खड़े होने वाले उद्यमी नही। केवल चेष्टा और व्यवहार से भी व्यक्ती आगे बढ़ सकता है...मोती उसी की मिसाल है। ऐसे कितने ही मोती हमारे गाँव देहात में होंगे पर हम उनको नही देखते। हमें सफलता के लिए विदेशी आयाम और प्रमाण-पत्र चाहिए। शहरी मन प्रशंसा के लिए भी विदेशी मापदंड खोजता है।

शक्तिनगर में कुछ ही हफ्ते बीते थे और मै वहाँ के जीवन से परिचित हो रहा था।

......क्रमशः

Wednesday, July 23, 2008

शहरी मन भी बदलता है....(२)

.....आगे

" एते तये भानवो दर्शतायाश्चित्रा उषसो अम्र्तास आगुः । जनयन्तो दैव्यानि वरतान्याप्र्णन्तो अन्तरिक्षा वयस्थुः ॥ "
देखो....सुंदर उषाकाल के चिरंतन वैभव को , जो अपने विभिन्न रंगों से सजकर हमारे पास आयी हैं। आकाश को भरते हुए और शुभ कर्मों को बढाते हुए इनका आकाश में आरोहण हुआ है।

ऋग्वेद की ये ऋचा ऎसी ही किसी सुबह के लिए लिखी गयी होगी। सुबह के इस अपूर्व दृश्य से ख़ुद को अलग किया और प्रशिक्षण केन्द्र जाने की तैयारी में जुट गए। कुछ नये साथियों से मुलाक़ात हुयी जो यहाँ कुछ महीने पहले आ गए थे और जैसा की ऎसी मुलाकातों में होता है....उन्होंने यहाँ के प्रशिक्षण केन्द्र और पूरी फैक्ट्री के लोगो की अच्छाई और बुराई बता दी। सबसे मजेदार बात ये होती थी की वो सब इंजिनियर थे और मैं मानव संसाधन में...और सबसे ज़्यादा बुराई वो मानव संसाधन की ही करते थे। बड़ा अजीब सा लगता था...और मैं चुपचाप बैठा ये सब सुनता था। उनके अनुसार प्रशिक्षण केद्र के प्रबंधक महोदय साक्षात रावण के अवतार थे और उनके नीचे सब खर दूषण। बाकी मानव संसाधन विभाग भी इसी तरह पुरातन काल के राक्षसों का ही पुनर्जन्म था। ये सब सुनकर सोचता रहा की कुछ महीने बाद मुझे न जाने कौनसे असुर की पदवी मिलेगी? वैसे मेरे आलसीपन को देखते हुए कुम्भकर्ण ही सबसे फिट बैठेगा पर आगे भाई-लोगो की मर्जी....

इन्ही सब को सुनते सुनते सबसे परिचय हुआ और लगा की ये लंका इतनी बुरी भी नही है। कुछ राक्षस काफी अच्छे लगे। सबसे पहले अशोक जी मिले...कौन अशोक जी...अरे वही...रावण के अवतार...प्रशिक्षण केन्द्र वाले। बहुत डरते डरते उनके कमरे में प्रवेश किया था और उनको देखकर डर कुछ कम हुआ। उनका प्रशस्त ललाट उनके सिर के हर सिरे तक फैला हुआ था और काफी चमक भी रहा था। बहुत ही आराम से बोलते थे...वाणी के ज़ोर और गति दोनों के लिहाज से और गज़ब के मजाक करते थे। कुछ देर बात-चीत के बाद उन्होंने सबसे मिलवाया। प्रशिक्षण केन्द्र क्या....अद्भुत से कुछ प्राणियों का जमघट था। एक महिला मिली, जो रिसेप्शन टेबल के ऊपर आलथी पालथी मारकर बैठी थी। पता चला की इनकी ज़मीन सरकार द्वारा ली गयी थी और बदले में नौकरी दी गयी। किसान की बेटी ऑफिस में परिचारिका बन गयी और समय के साथ साथ ज़मीन के साथ साथ अपनी सुध बुध भी खो बैठी। सरकारी नौकरी में निकाला नही जाता, सिर्फ़ ऐसी जगह तबादला करते हैं जहाँ आप कम से कम नुकसान कर सकें...सो इन्हे भी इस केन्द्र में बिठा दिया गया। अब इनकी तनख्वाह पर इनके लड़के अपना खर्चा चलते हैं और सुनते हैं ..गाहे बगाहे कुछ काम भी करते हैं। बीच बीच में ये लड़के अपनी अम्मा को लोन लेने के लिए भी उकसाते हैं। एक बार ये महिला आई और कहा.."हमका मोटर साइकिल के लिए लोन चाही"। अब सरकारी कानून कहता है की लोन उसे मिलेगा जिसके पास लाइसेंस हो। सो उनके सुपुत्रों ने ५० साल की उस प्रौढा का मोटर साइकिल लाइसेंस भी बनवा दिया...और वो भी फर्जी नही साहब....बिल्कुल चमचम करता हुआ, सरकारी मुहर वाला असली लाइसेंस। धन्य है भारत.....जहाँ एक मानसिक रूप से विचलित प्रौढा का ड्राइविंग लाइसेंस भी बन जाता है और हम कहते हैं की नारी सशक्तिकरण नही हुआ!!!

एक और इसी प्रकार का व्यक्ति दिखा...जिसे उसके लड़के सहारा देकर लाये और उपस्थिति दर्ज कराने के बाद ले गए। ये भी एक ऐसे ही भू-विस्थापित व्यक्ति था...जिसने ज़मीन भी दे दी, नौकरी भी ले ली पर आत्म-निर्भर किसान से नौकर बनने का मानसिक सफर तय नही कर पाया और देसी शराब का आदी हो गया।

ऐसे कितने और भी लोग मिले। सरकार कुछ पैसा देती है और उस पैसे को भुनाने के लिए शराब के ठेके खुल जाते हैं। एक -आध साल में पैसा ख़तम...ज़मीन गायब, और फिर अगर नौकरी भी न मिले तो शहर का रास्ता पकड़ना। गाँव से शहरी झुग्गियों तक की यात्रा का अंत तो मेरी शहरी आंखों ने देखा था...यहाँ उस यात्रा की शुरुआत भी देख ली। कहते हैं कि जब यहाँ पर इतने बाँध और ताप बिजली घर बने तो तत्कालीन प्रधान मंत्री ने कहा की हम इस जगह के लोगो के जीवन का स्टार स्विट्जरलैंड के बराबर कर देंगे। लोगो ने विश्वास किया था और ज़मीने सौंप दी.....काश कि इन लोगो को उस पल अविश्वास में पला-बढ़ा शहरी मन मिल जाता!

......क्रमशः

शहरी मन भी बदलता है....

मेरे शहरी जीवन को पहली ठेस तब लगी जब मैंने शक्तिनगर स्टेशन देखा। दिल्ली महानगर में पैदा हुआ और पला बढ़ा। २ साल पांडिचेरी में बिठाये पर वो भी रुरल एरिया नही था। फिर भारत के सबसे बड़े ताप बिजली निर्माण कंपनी में नौकरी मिली तो प्रशिक्षण काल दिल्ली के पास नॉएडा में बिताया। प्रशिक्षण के दौरान आदेश मिला की ६ माह का अगला प्रशिक्षण शक्तिनगर में होगा। मेरे शहरी दिमाग में ऐसा कोई नक्शा नही था जहाँ इस नाम की कोई जगह दिखती हो। पूछने पर पता चला की बनारस के २५० की.मी.दक्षिण पूर्व में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर रिहंद बाँध के पास ये ताप बिजली घर है। ये भी पता चला की यहाँ जाने के लिए लखनऊ से ट्रेन पकड़नी होगी। खैर, टिकेट कटवाया गया और हम अपने एक साथी प्रशिक्षु के साथ लखनऊ रवाना हुए और लखनऊ से त्रिवेणी एक्सप्रेस से यात्रा आरम्भ की। एक के बाद एक स्टेशन, फिर अलाहाबाद और उसके बाद के स्टेशन के नाम भी नही सुने थे। कुछ ऐसे स्टेशन दिखे जहाँ तब भी एक ढिबरी के प्रकाश में स्टेशन मास्टर सिग्नल दिखा रहे थे। ऎसी चीज़ें तब तक मैंने केवल फ़िल्म में देखी थी.....सब कुछ थोडा अजीब सा लग रहा था।

खाना खाया, सोये और फिर जगे तो लोगो से सुना शक्तिनगर आने वाला है.....आलसी मन बोला की थोड़ी देर चादर तान कर और सो लें। अबकी बार नींद खुली तो शक्तिनगर आ चुका था। समान समेटा और हमारा साथी ट्रेन के दरवाज़े तक गया और ज़ोर से बोला....अरे दादा, हम ग़लत जगह आ गए...ट्रेन तो यार्ड में आ गई है। हडबडा के गए....देखा तो प्लेटफोर्म नदारद था। एक गुज़रते हुए आदमी से पूछा तो पता चला की यही स्टेशन है और यहाँ कोई प्लेटफोर्म नही है....सामान लेकर नीचे कूदना ही एकमात्र उपाय है। मन ही मन खूब कोसा कंपनी को...और कोई जगह नही मिली थी...अरे कम से कम लखनऊ में ही बनवा देते। पर अब क्या करते...समान सँभालते हुए एक टूटे से रिक्शे में बैठ ट्रेनिंग सेंटर पहुंचे और हमें हॉस्टल में जगह दी गयी। हॉस्टल के चौकीदार ने चाबी देते हुए बड़े इत्मीनान से कहा..."रात को निकलना नही...इहाँ बहुत सौंप बा...और बालकोनी माँ कपडा ध्यान से सुखाई...नही तो ई लंगूर कपडा लत्ता उठा के ले जाब "। उसके कहने के ढंग से लग रहा था जैसे ये कितनी नोर्मल बात है...और हमारी शहरी जान सूख कर काँटा हो रही थी। सच कहूं...अपने ऊपर बहुत तरस आ रहा था। हॉस्टल में अपने बाकी साथियों से मिले....बहुत अनमने भाव से खाना खाया और किस्मत को कोसते हुए सो गए।

हमें सुबह जल्दी जागने की बुरी आदत है, सो जाग गए। बालकनी में गए.....और पहली बार ख़ुद को इतना चुप-चाप महसूस किया। सुबह की पावन निस्तब्धता, सद्यस्नाता किसी पुजारिन सी, ओस में नहायी हुयी सुबह। पक्षियों का कूजन भी मानो उस शान्ति को बढ़ा रहा था। चारो तरफ़ हरियाली, एक छोटी सी हरी भरी पहाडी और एक निर्जन सी रेल लाइन....ये कैसी जगह थी? ऐसी सुबह में मन करता है की खूब साँस लूँ...और इस सुबह की महक को पोर पोर में क़ैद कर लूँ। अब तक जो संगीत सीखा था वो याद आ रहा था। शायद पहली बार मुझे समझ आया की प्रातः काल में भैरव राग के शुद्ध स्वर क्या जादू जागते होंगे। मेरा शहरी मन ओस में धुल चुका था और शक्तिनगर मेरी यादों में बसने के लिए तैयार था.......

.......क्रमशः

Friday, July 18, 2008

झूठी कहानी

हर रात एक नयी कहानी


हर नयी कहानी में वही पुराने राजा रानी


परियों का देश, उड़ने वाला घोडा


सुंदर राजकुमारी दुष्ट जादूगर


खूब सारी हँसी में दुःख भी थोडा


बिटिया और कुछ नही मांगती


बस रोज़ एक नयी कहानी


कैसे बताऊँ उसे............


अब ये कहानी कहने का मन नही करता है


उसकी आंखों में सपने बुनने से मन डरता है


आज राजकुमारी को कोई दुष्ट जादूगर


जन्म से पहले ही सुला देता है

और अगर नही सुलाता है


तो एक डर भरा जीवन उसे अपनी और बुलाता है

डर ..... भरे शहर अकेले आने जाने का

तेजाब की तेज़ आंच में झुलस जाने का
किसी राजकुमार का सपना आँख में बसाकर

फूलों के महल को मन में बिठाकर

दहेज़ kii बलिवेदी पर मिट जाने का

राजा रानी असहाय से निष्क्रिय होकर देखेंगे

बाकी सब केवल सुहानुभूति के फूल फेकेंगे

ऐसे में एक बेटी के बाप का मन रोता है

फिर भी बिटिया की जिद है.....

वो उसे एक अच्छे राजा रानी की कहानी सुनाकर

हर रात झूठ का घूँट भरकर सोता है


Wednesday, July 16, 2008

कवि, क्यों ऐसे हो

तुम लिखते विप्लव के गीत

देते प्रलय को आमंत्रण
सृष्टि की गर्भ व्यथा जान
क्यों करते काल का आवाहन

क्या मोह नही है तुमको भी
इन रँगों से, इन छन्दों से

इस भ्रमर गीत के गुँजन से
मायावी शब्दों के बन्धों से


फिर क्यों इस पुलकित उपवन में
तुम दहन कामना करते हो
नव वसन्त की हरी शिरा में
पतझड़ का विष क्यों भरते हो


तुष्ट नही क्या सुख के क्षण से

चिर दुखों का पथ चुनते हो
अन्तर से लेकर मर्म तंतु

एक व्यथा कथा तुम बुनते हो


किस समाज ने, किस रीति ने
किस रूढि ने क्लान्त किया

बन चिता अनल जो दहके तुम

तो किस ज्वाला को शांत किया

हिमगिरि सा लेकर स्थिर मानस

शांत किया अस्थिर मन को
शब्दों मे भर पिघला लोहा
तुम परुष बनाते जन-जन को

ये कुलिश कुठार कठोर छन्द

हैं फिर भी स्निग्ध सरल प्राण
कवि कैसे समझूँ मन तुम्हारा
सब हार के गाये जो जय-गान


कवि अपना मन दो मुझको
मैं बन कर देखूँ दावानल
सुधा-मोह से मुक्त हो जाऊँ

मैं बनूँ काल का हालाहल

Sunday, June 15, 2008

अनगढ़ सुर

मेरे सुर मुझ जैसे ही अनगढ़ से हैं
बेलाग किसी जीवन से हैं ये निकले
सभ्य नही ये निपट निरे और अनपढ़ से हैं

किसी बसंती पवन का बनके झोंका

अमराई से लड़ जाएँ ये लगे जो मौका

जहाँ मन हो वहीं आठवाँ सुर लगाएं

बंदी रागों से दूर खड़े ये अल्हड़ से हैं

मेरे सुर मुझ जैसे ही अनगढ़ से हैं

रूठा रूठा बादल ज्यों हौले से गरजे

दोपहरी को अँधेरा कर झम-झम बरसे

तपता आँगन जानके भी जो गिरती बारिश

जिद्दी बचकानी बारिश जैसे अक्खड़ से हैं

मेरे सुर मुझ जैसे ही अनगढ़ से हैं

हरसिंगार की भीनी खुशबू भरना चाहें

अमलतास के फूलों सा ये झरना चाहें

जलकर तपकर पलाश सा साज सजायें

कोमल फूलों के बीच खिले कुछ पत्थर से हैं

मेरे सुर मुझ जैसे ही अनगढ़ से हैं

Saturday, June 14, 2008

मौत....एक पड़ाव

कौन?

अच्छा.... मौत
आओ दोस्त, बैठो
कुछ बात करो , कुछ कहो, कुछ सुनो,

कुछ मेरे साथ किस्से बुनो


कुछ किस्से शहरज़ाद के

जिसने तुमको बहलाने के लियेसुनायी थी

कहानियां एक हज़ार एक


और वो जो तुमने देखा होगा
जंग के मैदानो में

जिस्म की दुकानो में
शहर के वीरानों में

टूटते मकानो में

उन सबके किस्से कह सकते हो
आख़िर कब तक इन सबको सीने मे लिये रह सकते हो


जानता हूँ
तुम्हे कोई नही चाहता
तुमको कोई गले नही लगाता
कोई नज़र नही मिलता

कोई घर नही बुलाता

जो रोज़ भूख के मारे तुमसे मदद माँगता है
तुम्हारे आने पर

वो भी तुमसे दूर भागता है


तुम निराश मत होना

ये सब अभी कच्चे हैं
तुम्हारी उमर के सामने बच्चे हैं

धीरे-धीरे तुमको समझ जायेंगे

फिर तुम्हरी गोद मे सिर रखकर
हमेशा के लिये सो जायेंगे

Sunday, June 8, 2008

पराये शहर की बारिश...

आज बारिश हो रही है


पानी का रँग वही


आवाज़ भी


पर वैसा गीलापन नही


जो घर पर होता था


जो गिरता था थके तन पर


और मन को भिगोता था


नही......ये वो बरसात तो नही


जो मेरे शहर में आती थी


पराये शहर की बारिश


कुछ खारी होती है शायद.......



Monday, June 2, 2008

एक घाव ये भी...

कुछ पल जो गहरे बैठ गए

उनसे रिसते ख्यालों पर

शब्दों के फाहों से

लगाया है मरहम

पर उनपर जमती क़तरों की भयानक तस्वीर

कर देती है मजबूर

के उन्हें कुरेदा जाए बार-बार

ताकी पल का हरापन दिखता रहे

कतरा-कतरा ही सही

पर कोई चटख सुर्ख ख्याल रिसता रहे

नसों पर दर्द का तंज़ कसा जाए

कसमसा उठे हर धड़कन

चरमरा जाएँ सोच के दायरे

ताज़ा पल के बोझ से

गहरायी की जो हूक हो

उसके पाटों में फंसा

हर पुराना घाव पिसता रहे

कतरा-कतरा ही सही
पर कोई चटख सुर्ख ख्याल रिसता रहे

Tuesday, May 27, 2008

आँगन का नीम

मेरे आँगन के नीम को शिकायत है मुझसे

उसकी उम्र से बोझिल बाहों का जो सहारा था

जिसे उसने अपनी छाँव में संवारा था

वो झूला आज उससे छूट गया

मेरी बिटिया की डोली है आँगन में

और मेरे आँगन के नीम का दिल टूट गया

जब बिटिया छोटी थी

धूप करती थी कोशिश की उसे छू सके

लाख जतन करती थी की उसे सहलाने को

पर अपनी पत्तियों को हिला हिला कर

लड़ा था यही नीम उसे बचाने को

आज धूप खिल-खिला रही है

सूरज बिट्टू के माथे पर सज कर बैठा है

नीम अपनी हार का दुःख लिए

मुझसे, मेरे आँगन से ऐंठा है

जब बिटिया ने कहना सीखा था

कितनी बातें होती थी नीम से गुप-चुप

अपनी शिकायत, डर और खुशी के किस्से

और सबसे छिपे हुए अपनी ज़िंदगी के हिस्से

आज वो सब हिस्से कोई और लिए चलता है

इस नए राज़दार से मन ही मन

मेरे आँगन का नीम आज जलता है

पर ये पीड़ा, ये दर्द , ये चुभन

ये छूट जाने के आंसू

ये पराया होने की जलन

कहारों की पाँव की धूल में उड़ जाते हैं

मैं और मेरे आँगन का नीम

बस अपने खालीपन से जुड़ जाते हैं

Tuesday, May 13, 2008

अन्नदाता

कुछ दिनों पहले अमरीकी राष्ट्रपति ने चिंता जतायी की भारत में लोगो के "ज़्यादा" खाने से दुनिया मी खाद्य संकट पैदा हो गया है। दूसरी और किसानों की भुखमरी से तंग आकर की गयी आत्महत्या इतनी रोज़मर्रा की ख़बर हो चुकी है की आजकल अख़बारों के पहले पन्ने पर भी नही आती। इसी स्थिति की विषमता पर कुछ कहना चाहा है:

घुट्टी में पिलाया गया किसान को
क़र्ज़ लो.....
पर अनाज उगाने का फ़र्ज़ पूरा करो
हर बैसाखी और दशहरे पर उसे निहारो
काटो, बांधो, बुहारो
बेच आओ उसे उस क़र्ज़ के बदले
ताकि अगला क़र्ज़ lene की बात हो पाये
एक और पीढ़ी का भविष्य गिरवी हो जाए

ऐसे गिरवी भविष्यों से बना किसान
अब तक अपनी अगति नही लेता मान
कितने और फांकों से पेट भरेगा
कितनी बार अपनी किस्मत से लड़ेगा
और कितने गोदान लिखे जायेंगे
कितने होरी गुमनाम मर जायेंगे
इनको अब भी गर्व है अनाज उगाते हैं
और इनके पास है मृतप्राय प्राण
जिससे इस अन्न का दाम चुकाते हैं

Tuesday, May 6, 2008

रोटी और Darwin

डार्विन का कथन है survival of fittest

इसका मतलब किसी प्रजाति में हमेशा एक संघर्ष, एक अंतर्द्वंद रहेगा की सिर्फ़ जीवित रहने के लिए, जिंदा रहने की होड़ , इसीपर लिखी गयी है ये कविता.....

शहर का धूमिल चाँद

बिजली के तारों में अटका

एक रोटी जैसा दिखता है

भूख फुटपाथ पे लेटी

पुराने अखबार में लिपटी

बुझी आँखों को उठाती है


कोशिश है रोटी लेने की

मगर उसमे भी मजबूरी है

दूसरों की भूख से लड़ना है


लड़ाई अमीर गरीब की नही

लड़ाई दो गरीबों की है

एक खायेगा

एक को मरना है


यह किस्सा ऐसे चलेगा

एक जीवन का मोल दूसरा जीवन

'Darwin' आज मुस्कुरा रहा है

दर्द

दर्द....किसी शाम के धुंधलके सा,

उतर आता है आँगन में

ओढा देता है मुझको एक चादर कंपकंपाती सी

सिहर जाता है मेरे बदन में कोई शिकायत बनकर

आवाज़ जैसे कोई बीती सी, थरथराती सी

दर्द....किसी शाम के धुंधलके सा,
उतर आता है आँगन में

नसों में अपनी रूह ये भर देता है

एक-एक कर यादो के चिराग करता रोशन

अँधेरा हर कोने में कर देता है

दर्द....किसी शाम के धुंधलके सा,

उतर आता है आँगन में

एक खारे पानी की बूँद में समेट लेता है ज्वार

उठती-गिरती साँसों में भिगोता हुआ

ना जाने कब होने लगता है इससे प्यार

दर्द....किसी शाम के धुंधलके सा,

उतर आता है आँगन में

Saturday, May 3, 2008

ये सोचो....

ये सोचो...

पुरानी बातें यादों का तकाजा करें

बीते कोहरे गुम होने की इजाज़त चाहें

कोई ढलता लम्हा थाम ले हाथ

माँग ले तुमसे थोडा और साथ

तो क्या हाथ झटक आगे बढ़ पाओगे

या फिर बीती बातों को याद कर

फिर से चुप रह जाओगे

ये सोचो....

अगर कोई राह तुमसे छाँव माँग ले

या धूप माँगे सुकून की कीमत

कोई मील का पत्थर

कहे तुमसे ये बढ़कर

मुझे भी किसी मंजिल का पता देते जाओ

तो क्या ये सब तुम दे पाओगे

या किसी भूले हुए रास्ते सा

समय की धूल से ढक जाओगे

ये सोचो...

कोई नया तारा कहे गर तुमसे

मेरा नया चाँद बनो

नयी सी उजली धुली रात बनो

कोई नया किस्सा नयी बात बनो

क्या तुम कोई रोशनी दे पाओगे

या किसी पिघलते चाँद की तरह

किसी अमावस में सो जाओगे

Monday, April 28, 2008

मैं अब भी दूर नही...

जो गीत कहा था गाने को
मन ही मन बस गा पाया
खामोशी के बोल लिए
बेबाक सुरों ने जो गाया
वो गीत अगर तुम सुन पाये
या बाँध के गर तुम रख पाये
इस मन के पिंजड़े मे ही कहीं
तब यही समझना दोस्त मेरे
मैं अब भी तुमसे दूर नही

गाते गाते जो एक हुआ
हम दोनों के प्राणों से
अंतर्मन में उतर गया
डूबा था जो इन भावों में
उसकी बिखरी कलियों में गुम
महका करते अब तक तुम
जैसे निशिगंधा खिले कहीं
तब यही समझना दोस्त मेरे
मैं अब भी तुमसे दूर नही


गुलमोहर से लेकर अग्नि
फागुन का रँग लगाया था
बेलाग गीत के रँगों से
एक बीता पन्ना सजाया था
याद आती है वो छुपी किताब
और उसमे सहेजा एक गुलाब
जो दिया था मैंने तुमको कभी
तब यही समझना दोस्त मेरे
मैं अब भी तुमसे दूर नही


ये अपनी ही एक पुरानी बांगला कविता का अनुवाद किया है। इस अनुवाद में हमारे मित्र श्री पीयूष नें बहुत मदद की है, जिसके लिए उनका बहुत बहुत धन्यवाद ।











Saturday, April 5, 2008

दरिया को पार किया जाये

आओ के इस दरिया को फिर पार किया जाए

मौजों के रहम पे खुदी को रख दिया जाये

सपनों से बाँध ले अब gharonde को apne

रेत जो behtii है तो bahne दिया जाये

ख्वाहिशें हसीन हैं पर रुख को ज़रा मोड़

हकीकतों के आँधी से अब लड़ लिया जाये

साहिलों के छूटने का शिकवा न हो कहीं

कश्तियों के दिल को सख्त कर लिया जाये

Tuesday, April 1, 2008

कुछ नया सा...

नया सा कुछ लिखूँ ये चाह लिए
मैं भटकता रहा यादों के चिराग लिए
किसी मोड़ पे मिले कोई नई छाँव
कोई मील का पत्थर रोक ले मेरे पाँव
मुझको कोई शाम नया रँग दिखलाये
मेरी कलम मे रोशनाई नई भर जाए


लफ्जों के अम्बार मैंने टटोले हैं
बंद किवाड़ भी चुपके से कई खोले हैं
किसी पुराने लिफाफे में लिपटा हुआ
अनजान किसी खुशबू मे सिमटा हुआ
कोई नई बात ये लफ्ज़ मुझे कह जाए
मेरी कलम मे रोशनाई नई भर जाए


कोई साहिल मिले जो मौज से टूटा हो
कोई लम्हा जो कहीं वक्त से छूटा हो
किसी बिखरे से पल मे हो संजोया सा
दिखता हो हमेशा पर रहे खोया सा
ऐसे ख्याल से कोई मुझको मिल्वाये
मेरी कलम मे रोशनाई नई भर जाए

Monday, March 17, 2008

कहानी ऐसी होंगी

किताब यों ही अधखुली तो नही

कुछ तो मौजू में तकलीफ होगी

जो हाशिये से झाँक रहे मायने

उनमें भी कहानी एक रहती होगी

जो इस पार के सफों से शुरू होकर

उस पार के किसी पन्ने मी गुम हुयी

किसी स्याही के पिघले आँसू को थाम

कहानी किसी मुकाम पे ठहरती होगी

किताब के पहले पन्ने सी सफ़ेद

जहाँ कोई इबारत नही करती सवाल

उस कोरेपन के दिल में छुपते हुए

कहानी इन लफ्जों को सहती होंगी

कोई मरकज़ कोई साहिल ये किताब मेरी

इसकी आगोश में कई लम्हे जवान

इन्ही लम्हों की रवानी ओढे

कहानी भी नयी सी रहती होंगी

"ये कविता हमारे मित्र कुनाल जी से प्रेरित और उन्ही को समर्पित है."

Tuesday, March 4, 2008

कुछ कह जाए मुझे.......

हर उठती लहर नया मंज़र दिखलाये मुझे

बिखरने का नया अंदाज़ ये सिखलाये मुझे

मैंने देखा है इस दर्द को कई बार रोते हुए

कोई इस दर्द के छुपे दर्द से मिलवाये मुझे

तमन्नाओं का चाँद रात से जब डरता हो

रोशनी के मायने तब कोई समझाए मुझे

माजी को बिसारा 'अभी' किसी लोरी की तरह

उस लोरी के आँचल में कोई छुपा जाए मुझे

Sunday, February 24, 2008

अपना सा इन्द्रधनुष

आज बरसात तो नही हुई कहीं पर

धूप फिर क्यों लग रही धुली सी

शायद रोयी होगी

उसके आँसूओं से बना इन्द्रधनुष
तुम्हारे आँचल की तरह लहराया

मुझको भी तब याद आया

वो धनक जो हमने था बनाया

धूप से रँग उधार लेकर

तुम्हारे होठों सा बाँक देकर

मन के इस कोने से

मन के उस कोने तक सजाया

उसपर एक सपना बांधा
ताकि जब हम वापिस आयें

इसको पहचान पायें

बहुत दूर तक भटकने के बाद वापिस आए

धनक तो था

पर उसपर बँधा सपना नही था

तुम्ही कहो कैसे उसे अपना कहते
किस तरह उसके साथ रहते

इसीलिए उसे छोड आया

आज फिरसे धूप धुली है

सोचता हूँ कुछ साफ रँग इससे माँग लूँ

एक नया इन्द्रधनुष बनाऊं
और उसपर फिर एक सपना टाँग लूँ

Wednesday, February 6, 2008

मध्य वर्ग के प्राणी

मध्य वर्ग में विचरते लोग
किसी अमीर गाडी के शीशे में खुद को निहार
अपनी जनपथ वाली ब्रांडेड कमीज़ को संवार
किसी उपरी पायदान में चढ़ने के सपने लिए
नीचे के पायदान को भी खोते हैं
अधर में लटके किसी त्रिशंकु की तरह
एक किफायती स्वर्ग के सपने संजोते हैं

थान भर रीति-रिवाज़ से ढांपकर खुदको
बनते हैं किसी रूढी के पहरेदार
किसी अनसुनी परंपरा के सिपहसालार
अपने इतिहास को किसी नाम से जोड़ने के लिए
तिल-तिल अपनी पहचान भी खोते हैं
अधर में लटके किसी त्रिशंकु की तरह
एक किफायती स्वर्ग के सपने संजोते हैं

किश्तों में मिलती खुशियों से कभी कभी
लेते हैं जीवन के दो पल उधार
अपनी मृत आशाओं को जबरन बिसार
रंगीन रोशनी की चमक में चुन्धियाने के लिए
अपने अँधेरे का भरोसा भी खोते हैं
अधर में लटके किसी त्रिशंकु की तरह
एक किफायती स्वर्ग के सपने संजोते हैं

Saturday, February 2, 2008

कुछ lamhe रात के

टूटी सी रात की प्याली में
सुबह नें थोडा झाँका था
चाँद नें भी छुपते-छुपते
तारों के मोल को आँका था

हर करवट पर टूटे सपने
हर टूटा सपना जलता सा
कोसा सा सूरज उगता है
जलते सपनों में तपता सा

एक लम्हा था जो जुडा हुआ
दिन और रात की डोरी से
ना जाने कब वो chalaa गया
aankhon aankhon में चोरी से


Tuesday, January 22, 2008

बात अभी और होगी

इस शब के गुज़रते ही एक शब और होगी
किस्सा चलता ही रहेगा बात अभी और होगी

मोहरों सी ये दुनिया , बिछाती है बिसात
डर ये लगता है दिल को, मात अभी और होगी

आप बावफा तो नहीं यकीन मुझको पर
क़त्ल जो आप करेंगे, वो वफ़ा और होगी


दिन के जलाने वाले मगरूर उजाले से कहो
खौफ खाओ, न जलाओ रात 'अभि' और होगी

Saturday, January 19, 2008

बात बढ़ती नही

जो तुम कह देते मुझे, बात बढ़ती नही
होता कुछ भरम नया, बात बढ़ती नही

बिखरते रहना मौज की आदत लेकिन
साहिल जो संभल जाता बात बढ़ती नही

आईने को उज्र नही टूटने से
अक्स खुद पिघल जाता बात बढ़ती नही

बहार से बचकर जिंदगी निकली थी
पतझड़ भी गुज़र जाता बात बढ़ती नही

"अभि" हर शह तकाज़ा करती मुझसे
वक़्त कुछ दिलदार होता बात बढ़ती नही