Tuesday, November 27, 2007

द्वंद्व समास

एक होने का स्वप्न लिए
हमने समय से संधि की थी
पर न समय बदला
ना हम
ना तुम
एक स्वर ना हो पाए कभी
आज भी केवल जुडे हुए से
द्वंद्व के भीतर खडे हुए से
एक शब्द नही
बस समूह भर बन कर रहते हैं
शायद हमारे रिश्ते को
द्वंद्व समास कहते हैं





Wednesday, November 21, 2007

जो किया नही....

प्रिये.....
तुमने अपने लिए सुननी चाही थी
कोई सुन्दर उपमा
खेद रहा,
मैं कोई तरल सरल उपमा भी तुमको दे ना पाया
कोई गीत तुम्हारी सुन्दरता पर कह ना पाया
आषाढ़ मेघ को देख भी मैं छंद हीन था
सारे सरस स्वरों में मेरा स्वर क्षीण था

खेद रहा,
मेरे इन कटु शब्दों के कंटक पथ पर
कभी धूमिल कभी जलती सी भावो की छाया
इन धूमिल सत्यों को कविता कहते कहते
प्रेम का कोई jhootha vaadaa भी दे नही पाया

खेद रहा,
जीवन को बस झोंक दिया संग्रामो में
रक्त लुटाया औने-पौने दामो में
पर तुम्हारे लिए कभी एक गुलाब भी
ह्रदय रक्त से अपने रक्तिम कर नही पाया


खेद रहा,
मैंने सबके दुखों को पाथेय बनाकर
नीलकंठ बनने का था खेल रचाया
तुमने जो दी थी मुझको अमृत धारा
मैं बस अपना गरल ही तुमको दे पाया

प्रिये,क्षमा करो
यह कहकर तुमको लज्जित नही करूंगा
मन की ग्लानि पर कोई मरहम नही रखूंगा
आज विदाई की वेला में बस इतना संबल दो
जीवन जो आएंगे, उसमे भी होंगे ऐसे रण
पर साथ तुम्हारा हो और मेरा अटल हो प्रण
क्लिष्ट कलुष पथो पर जब भी मैं स्वयं को पाऊँ
जीवन के विष संग तुम्हारे बाँट मैं पाऊँ