Sunday, September 23, 2007

ज़िन्दगी कि रेल

स्टेशन के बाहर खडा भिखारी
खोमचेवाला, कुली, मदारी
रिक्शे वाला भैया या गुमटी वाला पनवाडी
सब देखते हैं सपने
कि एक दिन उनकी गाडी पटरी पर आयेगी
फिर राजधानी की स्पीड से
उनको आगे ले जायेगी
और उस राजधानी कि उम्मीद में
रोज़ लोकल की भीड सा घिसते हैं
जीवन की पटरियों कि फिश-प्लेट मे फँसे
चुपचाप खडे पिसते हैं

प्लेटफार्म सा अपनापन
ये भी दिखलाते हैं
तभी तो हर आने-जाने वाले को
कभी चाचा, कभी भैया, कभी अम्मा बनाते हैं
बुलाते हैं ,दिखाते हैं
कराहते हैं ,सराहते हैं
कभी टहलाते कभी बनाते हैं...
फिर चुप हो जाते हैं
क्योंकि अगला किसी रिश्ते से मुकर जाता है
सामान नही लाता
पान नही खाता
आधे दाम वाली इम्पोर्टेड शर्ट पर नही ललचाता
तमाशा नही देखतापैसा नही फेंकता
रिक्शे से मुँह चुराकर
पैदल ही चला जाता है
ऐसे अर्थहीन रिश्ते को कौन भला निभाता है
ये भी नही निभाते हैं
आँख से ओझल और पुकार के बाहर चले बाने पर
कुछ किस्मत की तरह
एक भद्दी सी गाली से मन भरकर
किसी और पुख्ता रिश्ते की खोज मे लग जाते हैं

रात होती है
पनवाडी कि ढिबरी जलती है
कुली , खोमचेवाला, मदारी
रिक्शेवाला भैया और भिखारी
सब थककर सोने जाते हैं
और रात की पाली के कुली मदारी
खोमचेवाला, रिक्शेवाला और भिखारी आकर
अपनी राजधानी के सपने सजाते हैं
वो भी रिश्ते सजाते हैं
अऊटर सिग्नल पर खडी ज़िन्दगी के लिये
प्लेटफार्म पर अपनी पलकें बिछाते हैं

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