किताब यों ही अधखुली तो नही
कुछ तो मौजू में तकलीफ होगी
जो हाशिये से झाँक रहे मायने
उनमें भी कहानी एक रहती होगी
जो इस पार के सफों से शुरू होकर
उस पार के किसी पन्ने मी गुम हुयी
किसी स्याही के पिघले आँसू को थाम
कहानी किसी मुकाम पे ठहरती होगी
किताब के पहले पन्ने सी सफ़ेद
जहाँ कोई इबारत नही करती सवाल
उस कोरेपन के दिल में छुपते हुए
कहानी इन लफ्जों को सहती होंगी
कोई मरकज़ कोई साहिल ये किताब मेरी
इसकी आगोश में कई लम्हे जवान
इन्ही लम्हों की रवानी ओढे
कहानी भी नयी सी रहती होंगी
"ये कविता हमारे मित्र कुनाल जी से प्रेरित और उन्ही को समर्पित है."