Friday, August 31, 2007

मुझे इतना तो बस कहने दो

मुझे इतना तो बस कहने दो
इन शब्दों में ही बहने दो

कितने जतन से था संजोया
सपना था जो खोया-खोया
वो सपना अब थककर सोया
उसे सपनों में खोये रहने दो

मुझे इतना तो बस कहने दो
इन शब्दों में ही बहने दो

आंखों से पिघला एक तारा
मीठे दर्द का स्वाद ये खारा
ये खारापन ही जीवन सारा
ये खारापन मुझे सहने दो

मुझे इतना तो बस कहने दो
इन शब्दों में ही बहने दो

टूटा टूटा सा व्याकुल क्षण
टूटे मन का ज्यों दर्पण
इस दर्पण के हँसते-रोते कण
उनको गीतों के गहने दो

मुझे इतना तो बस कहने दो
इन शब्दों में ही बहने दो

Monday, August 27, 2007

दहके क्षण

आओ समय की राख कुरेदें
कुछ दहके से क्षण मिल जायें

जिस क्षण को बेकार समझकर
फेंक दिया जीवन से बाहर
वो ही सबसे सुन्दर क्षण था
वापिस उसको कैसे लायें

आओ समय की राख कुरेदें
कुछ दहके से क्षण मिल जायें

क्षणिक खेल था प्रेम हमारा
पर उसका पागलपन गहरा
अब प्रेमहीन निष्प्राण पलों में
वो उन्माद कहाँ से आये

आओ समय की राख कुरेदें
कुछ दहके से क्षण मिल जाएँ

काल की मृगतृष्णा से क्षण
पीछे भागे प्यासा मन
जो जीवन तृष्णा शाँत करे
पीयूष-स्रोत वो कहाँ से पायें

आओ समय की राख कुरेदें
कुछ दहके से क्षण मिल जायें

पहर भर का राग हो जैसे
जीवन अपना बीता ऐसे
कालजयी हो गूँजे हर क्षण
वो शाश्वत गीत हम गायें

आओ समय की राख कुरेदें
कुछ दहके से क्षण मिल जायें

Sunday, August 26, 2007

एक रूह की मौत

साये सरक से जाते हैं
एक खाली रूह गुज़र रही है
वक़्त के गलियारे से
खोखली ज़ंज़ीरों मे उलझती
गुमनाम एक अँधियारे में
पोली दीवारों से टकराती
रूह का एहसास जा चुका है
बहुत कुछ इस दिल की तरह
जो अब टूटते हुये
एकदम सख्त हो गया है
कहीँ दूर के वक़्त में
एक घनी छाँव थी
रूह को तस्कीन थी
मगर छाँव अँधेरे मे नही होती
और रूह धूप से नाराज़
दोनों ठीक थेअपनी जगह
रूह जो धूप को भुलाना चाहती थी
धूप जो रूह को जलाना चाहती थी
आज अधजली सी रूह
धूप से सुलह कर चुकी है
इन सरकते सायो मेएक होकर
रूह खुद छाँव बन चुकी है

गरीब पसीना

पसीना सुर्ख नही होता
परा बहता वो भी है
रगों के परदे में नही
बेशर्म होकर चहरे पर आता है

लहू के बहुत किस्से हैं
लहू बोलता है
पर पसीना बेज़ुबान है
इसीलिये चुप-चाप ही गिर जाता है

अश्क भी गिरते हैं
उनके गिरने में शायरी है
पसीना आमा सी शह है
किसी ग़ज़ल का दाम कहाँ वो पाता है

जज्बातों se सरोकार नही
ललकार और प्यार से परे
सिर्फ भूख के डर से
पसीना पानी की तरह बहता जाता है

पसीना बहुत गरीब है
महलों में उसकी पहचान नही
ग़ुरबत से भरे खेत खलियान में
अक्सर ज़मीन पर पढा पाया जाता है



Friday, August 24, 2007

वक़्त की दौड़

हर शख्स सोचता है दौड़ के पकड़ लेगा
वक़्त की डोर का सिरा,
मगर मिलता नही
क्योंकि हर पल वो सिरा
थोड़ा और आगे बढ जाता है
आदमी भागता रहता है
पर बस एक लम्हे को पकड पाता है

बीते छोर से
कल की ओर तक
जो सफर है कुछ मापी हुई दूरी का
वो बेशुमार पलों का रास्ता
कैसे बन जाता है
आदमी भागता रहता है
पर बस एक लम्हे को पकड पाता है

रस्ते के थके से साये
कुछ झुके से मील के पत्थर
गवाही देते हैं
पलों के गुज़रने की
पर हर बार जाने कैसे
वक़्त एक रात आगे चला जाता है
आदमी भागता रहता है
पर बस एक लम्हे को पकड पाता है

Wednesday, August 22, 2007

चन्द पहलू नींद के

उजडे से इस चाँद के बदले
रात ने माँगी नीँद
पर मिली नही
ख़्वाबों ने हाथ खींचे
रात खडी रही आँख मींचे
पर न नीँद आयी
ना ख्वाब कोई
रात, फिर एक रात
बैरंग सी सोई


एक टूटी फूटी ज़िंदगी
बिछी है मेरे कमरे में
किसी चारपाई की तरह
मैं सोता हूँ उसपर
तो पायों मे चरमराती है बातें
पुराने मूँज सी उधडती हैं यादें
ढीले बदन के साँचे मे ये भी ढलती है
और एक रात ज़िन्दगी के साथ गुज़रती है

क्या बीता कैसे बीता

थके थके से बादल
बरसते नही
सिर्फ उमडते-घुमडते हुये
अपने होने का अहसास कराते हैं
बादल भी मौसम की तरह बीत जाते हैं

आँखें बाट जोहती हैं
झुकती नही
सिर्फ कभी कभी झपकते हुये
किसी नींद की थकान को दिखाती हैं
नींद भी उम्र की तरह बीत जाती है

गुलमोहर खूब जलता है
पर पिघलता नही
सिर्फ एक गिरा हुआ ज़र्द पत्ता
सुर्ख फूलों की कीमत कहता जाता हैं
फूल भी दिन के साथ बीत जाता है

मै चिर पथिक

मै चिर पथिक
मै चिर पथिक
नही पथ ऐसा कोई
जो चले मुझसे अधिक
मै चिर पथिक


उन्माद सा हूँ हृदय मे मैं
कोई मन का भाव हूँ
तेज हूँ मैं सूर्य का भी
मैं ही शीतल छाँव हूँ
काल सागर से उठा हूँ
मैं जो हूँ अमृत मथित
मैं चिर पथिक

गहन सागर में छिपा जो
वो जीने का उफान हूँ
क्षितिज को धूमिल बनाता
प्रलय सा तूफान हूँ
फिर मृत्यु जैसे एक पल से
मैं क्योंकर हूँ व्यथित
मैं चिर पथिक

तटों पर बनाती बिगड़ती
लहरों का अवशेष हूँ
रेत तो सब बह चुकी है
मौन ही में शेष हूँ
मौन की ये मूक भाषा
सुनता नित होता चकित
मैं चिर पथिक

ये लालसा के वृक्ष सुन्दर
फले फूले लग रहे
आशा की इस रात मे
सपनों मे ही जग रहे
इसकी छाया सघन इतनी
कर ना दे पथ को भ्रमित
मै चिर पथिक