Monday, September 24, 2007

मेरे लिए बस दीप

अगणित तारे इन हाथों मे न संभलेंगे
मेरे लिये बस छोटा सा दीप जलाओ
नभ सा विस्तार भला क्या दे पाऊँगा
चाहो तो इस मन मे ही सँसार बसाओ

तुमको मुक्त गगन मे ही उडना प्रिय था
मै भी शाखा के ममता से मुक्त नही था
तुम उडे पर मै अब भी हूँ आस मे बैठा
थककर शायद तुम इस शाखा पर आओ

तुमको भाया है सरिता सा बहते रहना
सागर मे मिलना उसकी ही बातें कहना
मैं तट बन इस आशा के साथ चला हूँ
कुछ बातें शायद मुझसे भी करते जाओ

नव बसन्त के पुष्पों को मै तोड न पाया
इसीलिये पतझड के पत्ते ओढ मै आया
पुष्पहार तो नही पर तुम छाँव जो चाहो
इन पत्तों से ही अपना पर्ण-कुटीर बनाओ

अगणित तारे मेरे हाथों मे न संभलेंगे
मेरे लिये बस छोटा सा दीप जलाओ

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