Tuesday, May 27, 2008

आँगन का नीम

मेरे आँगन के नीम को शिकायत है मुझसे

उसकी उम्र से बोझिल बाहों का जो सहारा था

जिसे उसने अपनी छाँव में संवारा था

वो झूला आज उससे छूट गया

मेरी बिटिया की डोली है आँगन में

और मेरे आँगन के नीम का दिल टूट गया

जब बिटिया छोटी थी

धूप करती थी कोशिश की उसे छू सके

लाख जतन करती थी की उसे सहलाने को

पर अपनी पत्तियों को हिला हिला कर

लड़ा था यही नीम उसे बचाने को

आज धूप खिल-खिला रही है

सूरज बिट्टू के माथे पर सज कर बैठा है

नीम अपनी हार का दुःख लिए

मुझसे, मेरे आँगन से ऐंठा है

जब बिटिया ने कहना सीखा था

कितनी बातें होती थी नीम से गुप-चुप

अपनी शिकायत, डर और खुशी के किस्से

और सबसे छिपे हुए अपनी ज़िंदगी के हिस्से

आज वो सब हिस्से कोई और लिए चलता है

इस नए राज़दार से मन ही मन

मेरे आँगन का नीम आज जलता है

पर ये पीड़ा, ये दर्द , ये चुभन

ये छूट जाने के आंसू

ये पराया होने की जलन

कहारों की पाँव की धूल में उड़ जाते हैं

मैं और मेरे आँगन का नीम

बस अपने खालीपन से जुड़ जाते हैं

Tuesday, May 13, 2008

अन्नदाता

कुछ दिनों पहले अमरीकी राष्ट्रपति ने चिंता जतायी की भारत में लोगो के "ज़्यादा" खाने से दुनिया मी खाद्य संकट पैदा हो गया है। दूसरी और किसानों की भुखमरी से तंग आकर की गयी आत्महत्या इतनी रोज़मर्रा की ख़बर हो चुकी है की आजकल अख़बारों के पहले पन्ने पर भी नही आती। इसी स्थिति की विषमता पर कुछ कहना चाहा है:

घुट्टी में पिलाया गया किसान को
क़र्ज़ लो.....
पर अनाज उगाने का फ़र्ज़ पूरा करो
हर बैसाखी और दशहरे पर उसे निहारो
काटो, बांधो, बुहारो
बेच आओ उसे उस क़र्ज़ के बदले
ताकि अगला क़र्ज़ lene की बात हो पाये
एक और पीढ़ी का भविष्य गिरवी हो जाए

ऐसे गिरवी भविष्यों से बना किसान
अब तक अपनी अगति नही लेता मान
कितने और फांकों से पेट भरेगा
कितनी बार अपनी किस्मत से लड़ेगा
और कितने गोदान लिखे जायेंगे
कितने होरी गुमनाम मर जायेंगे
इनको अब भी गर्व है अनाज उगाते हैं
और इनके पास है मृतप्राय प्राण
जिससे इस अन्न का दाम चुकाते हैं

Tuesday, May 6, 2008

रोटी और Darwin

डार्विन का कथन है survival of fittest

इसका मतलब किसी प्रजाति में हमेशा एक संघर्ष, एक अंतर्द्वंद रहेगा की सिर्फ़ जीवित रहने के लिए, जिंदा रहने की होड़ , इसीपर लिखी गयी है ये कविता.....

शहर का धूमिल चाँद

बिजली के तारों में अटका

एक रोटी जैसा दिखता है

भूख फुटपाथ पे लेटी

पुराने अखबार में लिपटी

बुझी आँखों को उठाती है


कोशिश है रोटी लेने की

मगर उसमे भी मजबूरी है

दूसरों की भूख से लड़ना है


लड़ाई अमीर गरीब की नही

लड़ाई दो गरीबों की है

एक खायेगा

एक को मरना है


यह किस्सा ऐसे चलेगा

एक जीवन का मोल दूसरा जीवन

'Darwin' आज मुस्कुरा रहा है

दर्द

दर्द....किसी शाम के धुंधलके सा,

उतर आता है आँगन में

ओढा देता है मुझको एक चादर कंपकंपाती सी

सिहर जाता है मेरे बदन में कोई शिकायत बनकर

आवाज़ जैसे कोई बीती सी, थरथराती सी

दर्द....किसी शाम के धुंधलके सा,
उतर आता है आँगन में

नसों में अपनी रूह ये भर देता है

एक-एक कर यादो के चिराग करता रोशन

अँधेरा हर कोने में कर देता है

दर्द....किसी शाम के धुंधलके सा,

उतर आता है आँगन में

एक खारे पानी की बूँद में समेट लेता है ज्वार

उठती-गिरती साँसों में भिगोता हुआ

ना जाने कब होने लगता है इससे प्यार

दर्द....किसी शाम के धुंधलके सा,

उतर आता है आँगन में

Saturday, May 3, 2008

ये सोचो....

ये सोचो...

पुरानी बातें यादों का तकाजा करें

बीते कोहरे गुम होने की इजाज़त चाहें

कोई ढलता लम्हा थाम ले हाथ

माँग ले तुमसे थोडा और साथ

तो क्या हाथ झटक आगे बढ़ पाओगे

या फिर बीती बातों को याद कर

फिर से चुप रह जाओगे

ये सोचो....

अगर कोई राह तुमसे छाँव माँग ले

या धूप माँगे सुकून की कीमत

कोई मील का पत्थर

कहे तुमसे ये बढ़कर

मुझे भी किसी मंजिल का पता देते जाओ

तो क्या ये सब तुम दे पाओगे

या किसी भूले हुए रास्ते सा

समय की धूल से ढक जाओगे

ये सोचो...

कोई नया तारा कहे गर तुमसे

मेरा नया चाँद बनो

नयी सी उजली धुली रात बनो

कोई नया किस्सा नयी बात बनो

क्या तुम कोई रोशनी दे पाओगे

या किसी पिघलते चाँद की तरह

किसी अमावस में सो जाओगे