Thursday, August 7, 2008

मौत...एक लम्हे का बदलाव

दिन बीता, रात गयी, फिर नया दिन
कई दिनों से नीँद के इँतज़ार मे बैठी आँखें
आख़िर आज थककर सो गयीं
ख़्वाबों की टिमटिमाती दुनिया में
ये धधकती धडकती दुनिया खो गयी....

इस मखमली अँधेरे लम्हे से पहले
आखिरी बारकुछ साये से आये थे नज़र
जैसे कुछ बीते मौसम, कुछ साल, कुछ महीने
कुछ कहना भूल गये थे ताबा
लौटकर वही बताने आये थे

ठिठके, मुडे, रूके

सोचा, मुडे, चले
जो कहा नही तब भी

बताया नही अब भी

मगर उनके इसी ठिठकने मे पता चला

इन आँखों को
अब उनको भी खोने का सफर करना है

इन बीते वक़्त के टुकडो को लेकर साथ

किसी खाली ख्वाब को भरना है
बस फर्क सिर्फ इतना होगा
खाली से ख्वाब हक़ीक़त होंगे
भरी सी हक़ीक़त सपना होगा

Sunday, August 3, 2008

शहरी मन भी बदलता है.....(शेष)

...आगे
"संगच्छध्वं संवंदध्वं संवौ मनांसि जानताम् ॥ "
हम साथ चलें , साथ बोलें और एक दूसरे के मन को समझे


शक्तिनगर की छोटी-बड़ी सुंदर चीज़ें देखते हुए समय बीत रहा था। इस जगह रहते हुए कई नए लोगो से मुलाक़ात हुयी, पहचान बढी और वो हमेशा के लिए यादों में घर कर गए। किसका नाम लूँ और किसे छोडूं.....सभी अपने आप में अनोखे थे। सबसे पहले हमारा हॉस्टल...जहाँ बेलाग बेपरवाह कुछ प्रशिक्षु रहते थे (हम भी उन्ही में थे)। सब अपने घर परिवारों से दूर इस जगह पर थे और कुछ दिनों के बाद वो ही एक दूसरे का परिवार बन जाते थे। कई बार लगता है की परिवार की सीमा केवल संबंधो पर ख़त्म नही होती... बल्कि वो सिर्फ़ पहला दायरा है। हम इस दायरे को फैलाते हैं ताकि एकाकीपन के कलंक से बचे रहे। खैर...तो ये प्रशिक्षु दिन में प्रशिक्षको की खामियां देखने में लगे रहते और शाम को क्लब में आने वाली सुंदरियों के गुन देखने में। रात में हॉस्टल में २९ की बाजी होती थी। जिन्हें ताश का ये खेल आता है , वो जानते हैं की ६ लाल या ६ काले खुलने में रात बीत जाती पर मुए पत्ते हैं जो खुलते ही नही। एक दूसरे की टांग खींचते हुए, लड़ते हुए, मेस के खाने को धिक्कारते हुए, घुमते और झूमते हुए कुछ अजनबी से लोगों ने ६ माह गुजारे और उस बियाबान के बीच अपना शहर बसा लिया और ६ माह बाद शहर से नए सिरे से उखड रहा हूँ। पहले सोचता था की मेरा मन शहर में बसता है पर नही...शहर शायद मन में बसता है।

यहाँ पर एक नए साहब आए थे। संयोगवश ये साहब हमारे ही विभाग में थे। नाम के लिए इनके पास कई डिग्री थी पर उनकी असलियत का भान हमें बाद में हुआ। एक दिन सुबह सुबह ये श्रीमान अपने सुपुत्र (सभ्यता की खातिर ही सही) को लेकर हमारे कमरे में और हमें आदेशात्मक लहजे में अनुरोध किया कि हम उनके सुपुत्र को क्लास ११ की गणित पढा दें। अब हमने स्वयं ही गणित काफ़ी तिकड़म लड़ा कर पास की थी....तो अपने ज्ञानी इमेज की इस तरह पोल कैसे खुलने देते? सो हमने उन्हें बताया कि हमने तो अर्थशास्त्र में स्नातक किया है अर्थात कला स्नातक हैं और हमारे देश में सभी जानते हैं कि कला स्नातक होना आपकी हीन और न्यून बौद्धिक क्षमता का परिचय है। सो उन्होंने हमारे हाथों में अपने सुपुत्र की बागडोर देना उचित नही समझा और हमें भी मुक्ति मिली। पर झूठ के पाँव नही होते.....कमबख्त इसीलिए भाग नही सकता और पकडा जाता है। एक दिन वहाँ के लोकल इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय में पत्राचार छात्रों को अर्थशास्त्र पढा रहे थे। इससे पहले कि आप कोई ग़लत धारणा बना लें...याद करवा दूँ की अन्धो में मोतियाबिन्द वाला राजा। बोर्ड पर एक समाकलन गणित का सवाल कस रहे थे और इतने में वही साहब पधार गए। उनकी कई डिग्रियों का ही परिणाम था कि वो इसे गणित के रूप में पहचान नही पाये वरना प्रशिक्षण पास करना कठिन हो जाता।

शक्तिनगर में एक और चीज़ दिखी। वहाँ पर आते-जाते लोग मिलते तो उनके पास आपकी तरफ़ देखकर मुस्कुराने का समय होता था। अक्सर दो घडी रूककर आपका हाल पूछने का भी समय निकाल लेते थे। शहरी मन के लिए समय का ये अपव्यय बड़ी विडम्बना है पर हर अपव्यय की तरह...ये मन को बहुत सुख देता है। आजकल के आधुनिक युग में जहाँ किसी रेस्तरां में खिलाना आतिथ्य की पराकाष्ठा है वहाँ पर ये लोग अब भी घर पर बुलाते थे। बेचारे कुंवारे प्रशिक्षुओं पर दया करते हुए अक्सर छुट्टी के दिन कोई सीनियर अपने घर पर बुलाकर दावत देते थे और हॉस्टल में रहे हुए सभी प्राणी जानते हैं कि ऐसी दावतों को ठुकराना घोर मूर्खता है और हम कभी भी इस मूर्खता से ग्रसित नही हुए।

इस छोटी सी जगह पर रहते हुए देखा कि ये बड़ी समस्याओं का समाधान कैसे करते हैं? भूख कि समस्या का समाधान है रोज़ मौत से जूझना। कोयला खदानों में होते धमाको से बचते हुए कोयला बीनने की कोशिश, जो बाज़ार में बेचकर रोटी का जुगाड़ कर सके। ज़ख्मी या बीमार होने पर कंपनी हॉस्पिटल में दया पाने की कातर प्रार्थना। शाम को आने वाली एक ट्रेन के इन्तेज़ार में सुबह से रिक्शा लेकर खड़े रहना। इन सबके बीच नज़र भर कर रिहंद बाँध में डूबे हुए अपने उस पुराने गाँव कि दिशा में ताकना जैसे वोह गाँव फिर उभर आयेगा। ऊँचे उठे ताप बिजली घर के चिमनियों के धुँए में किसी सपने को तलाशना। कालोनी के कूडे से बीनी हुयी प्लास्टिक कि पन्नियों से झोंपडे कि छत को टपकने से बचाना। आँखों के नीचे बढ़ती लकीरों कि जुबानी पता चलता है कि वहाँ कितने आंसू चले होंगे।

इस ६ माह के दायरे में शक्तिनगर ने बहुत कुछ सिखाया। इस बिजली घर को देखकर शहरी मन अपने विद्युत् आलोकित शहर की कीमत समझता है.....सच है...शहरी मन भी बदलता है।

ॐ सहनानववतु सहनौ भुनक्तु सहवीर्य करवावहैः। तेजस्विना वधीतमस्तु मा विद्विषा वैः ।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः