Sunday, February 24, 2008

अपना सा इन्द्रधनुष

आज बरसात तो नही हुई कहीं पर

धूप फिर क्यों लग रही धुली सी

शायद रोयी होगी

उसके आँसूओं से बना इन्द्रधनुष
तुम्हारे आँचल की तरह लहराया

मुझको भी तब याद आया

वो धनक जो हमने था बनाया

धूप से रँग उधार लेकर

तुम्हारे होठों सा बाँक देकर

मन के इस कोने से

मन के उस कोने तक सजाया

उसपर एक सपना बांधा
ताकि जब हम वापिस आयें

इसको पहचान पायें

बहुत दूर तक भटकने के बाद वापिस आए

धनक तो था

पर उसपर बँधा सपना नही था

तुम्ही कहो कैसे उसे अपना कहते
किस तरह उसके साथ रहते

इसीलिए उसे छोड आया

आज फिरसे धूप धुली है

सोचता हूँ कुछ साफ रँग इससे माँग लूँ

एक नया इन्द्रधनुष बनाऊं
और उसपर फिर एक सपना टाँग लूँ

Wednesday, February 6, 2008

मध्य वर्ग के प्राणी

मध्य वर्ग में विचरते लोग
किसी अमीर गाडी के शीशे में खुद को निहार
अपनी जनपथ वाली ब्रांडेड कमीज़ को संवार
किसी उपरी पायदान में चढ़ने के सपने लिए
नीचे के पायदान को भी खोते हैं
अधर में लटके किसी त्रिशंकु की तरह
एक किफायती स्वर्ग के सपने संजोते हैं

थान भर रीति-रिवाज़ से ढांपकर खुदको
बनते हैं किसी रूढी के पहरेदार
किसी अनसुनी परंपरा के सिपहसालार
अपने इतिहास को किसी नाम से जोड़ने के लिए
तिल-तिल अपनी पहचान भी खोते हैं
अधर में लटके किसी त्रिशंकु की तरह
एक किफायती स्वर्ग के सपने संजोते हैं

किश्तों में मिलती खुशियों से कभी कभी
लेते हैं जीवन के दो पल उधार
अपनी मृत आशाओं को जबरन बिसार
रंगीन रोशनी की चमक में चुन्धियाने के लिए
अपने अँधेरे का भरोसा भी खोते हैं
अधर में लटके किसी त्रिशंकु की तरह
एक किफायती स्वर्ग के सपने संजोते हैं

Saturday, February 2, 2008

कुछ lamhe रात के

टूटी सी रात की प्याली में
सुबह नें थोडा झाँका था
चाँद नें भी छुपते-छुपते
तारों के मोल को आँका था

हर करवट पर टूटे सपने
हर टूटा सपना जलता सा
कोसा सा सूरज उगता है
जलते सपनों में तपता सा

एक लम्हा था जो जुडा हुआ
दिन और रात की डोरी से
ना जाने कब वो chalaa गया
aankhon aankhon में चोरी से