Saturday, December 29, 2007

फितरती दाग़

मेरी फितरत से नाराज़ मेरे दोस्त सुनो
मेरे रंगों के बिखरे सभी तार बुनो
कि तुमको भी कोई ख्वाब नया मिल जाये
मेरी फितरत पर लगा दाग यों ही धुल जाये

आसमाँ से भी तो पूछो ये बरसता क्यों है
आँख में बूँद लिए दिल ये तरसता क्यों है
कि तुमको भी कोई टूटा ख्वाब मिल जाये
मेरी फितरत पर लगा दाग यों ही धुल जाये

नींद के पन्ने इसलिए मैंने संभाले हैं
रात भर चलते रहे , पाँव भर छाले हैं
कि तुमको भी छालो से सना ख्वाब कोई मिल जाये
मेरी फितरत पर लगा दाग यों ही धुल जाये

बस्तियों से अपना रुख ही जिसने मोड़ लिया
रेत की उड़ती छाँव को ही खुद पे ओढ़ लिया
कि तुमको भी ख्वाब बंजारा कोई मिल जाये
मेरी फितरत पर लगा दाग यों ही धुल जाए


"ये कविता हमारे मित्र 'मस्तो' की एक टिप्पणी से प्रेरित है, इसीलिए उन्ही को समर्पित भी है"