Friday, December 26, 2008

पिंजरों का दर्द

पिंजरों के भी जज़्बात होते हैं

वो भी परिंदों के लिए रोते हैं

बस परिंदों के शोर में कहीं

अपनी दबी आवाज़ खो देते हैं

किसी का आशियाँ कहला सकें

इसलिए कितना जतन करते हैं

पर परिंदे हैं कि हर वक़्त उसे

अपना कहने से मुकरते हैं

कभी कभी हताश गुस्से में

शिकायत भी करते होंगे

फिर अपनी शिकायतों का क़र्ज़

अपने ही दर्द से भरते होंगे

हर जतन करते हैं ये

कभी हँसते, कभी रोते, कभी जिंदगी के गीत गाते हैं

अब कैसे समझाऊँ मैं इनको

ये क्यों कभी आसमान नही बन पाते हैं