Saturday, July 26, 2008

शहरी मन भी बदलता है....(४)

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अरन्याण अरन्याण्यसौ या परेव नश्यसि। कथा ग्रामं न पर्छसी न तवा विन्दति अ३ न॥ (ऋग्वेद १०.१४६)
हे वनों और वन्य जीवों के देवी, जो आंखों से ओझल हो जाती हो। क्या कारण है कि तुम लोकालय से दूर रहती हो, क्या तुम्हे भय नही होता?

पुरातन ऋषियों का यही प्रश्न मन में गूँज रहा था जब मैंने शक्तिनगर में ज्वाला देवी का मन्दिर देखा। एक पहाडी के गोद में, एक छोटे से पहाडी नाले के पार बसा हुआ एक सुंदर सा छोटा सा मन्दिर। मन्दिर ज़रूर छोटा सा है पर इससे जुडी हुई आस्था बहुत बड़ी। शहर में मंदिरों में भव्यता का एहसास होता है, यहाँ पर दिव्यता का आभास हुआ। एक नीम के पेड़ के नीचे भगवती ज्वालामुखी का प्रतीक और उसी कि भक्ति-श्रद्धा के साथ पूजा। लोककथा अनुसार यहाँ पर भगवती सती का कोई अंग गिरा था और तब से यहाँ देवी कि प्रतिष्ठा है। पहले वहाँ की जनजातियों द्वारा पूजित देवी को किसी राजा ने अपने महल में ले जाने कि कोशिश कि थी। उन्होंने सोचा कि शहर की सुविधाओं से माँ की आँखें चुंधिया जायेंगी पर जैसा इस श्लोक में इंगित है ....भगवती को अपना वन और वन्य जीवन ज़्यादा अच्छा लगा और वो यहीं रह गयीं। शायद वैदिक काल से आजतक वो अपने विचार नही बदल पायीं!

अगर हम ध्यान से देखें तो हमारे ज्यादातर तीर्थ किसी प्राकृतिक रूप से सुंदर एवं महत्वपूर्ण जगहों पर हैं। शायद हमारे पुरातन मनीषी यही तरीका निकाल पाये थे मनुष्य को प्रकृति का महत्व समझाने का और इस प्राकृतिक संपदा को मानव के दानवी लोभ से बचाने का। पर जबसे मनुष्य ने इन तीर्थो से कमाई की सम्भावना देखी है तो सुविधा के नाम पर इन्हे नष्ट करने में कोई कसर नही उठा रखी। आजकल तीर्थो में अट्टालिका वन देखकर लगता है कि माँ ज्वालामुखी ने शक्तिनगर के जंगलो में रहकर ठीक ही किया। इस बीहड़ में कम से कम उनका एक टुकडा वन तब भी सुरक्षित था।

एक छोटा सा लाल रंग कई दीवारों वाला मन्दिर जिसके हर कोने में लाल कपड़े में बंधे नारियल। ये नारियल लोगों की इच्छाएं हैं जो माँ की आंखों के सामने रहकर उन्हें याद दिलाते हैं कि उन्हें कितना सारा काम करना है। किसीको संतान, किसीको धन, किसीको नौकरी, किसीको फसल.....सबने अपनी अपनी बात भगवती के सामने रख दी है। इस चीज़ में शहरी मन ग्रामीण के साथ एक है। चमत्कार को नमस्कार है और उस नमस्कार के बदले जीवन को चमत्कारिक रूप से सुखमय कर लेने की इच्छा और आशा। खैर, शक्तिनगर के निवासी इन्हे काफी मानते हैं और वहाँ आने वाले हर व्यक्ति को दर्शन की सलाह भी देते हैं। साल में दो नवरात्रियों के समय यहाँ एक मेला भी लगता है। चूड़ी-बिंदिया, महावर-मेहंदी से लेकर बर्तन-कपडा और झूले....सब है इस मेले में। इस आस्था के मेले में खरीदारी भी होती है और आँखें भी चार होती हैं। माँ किसको क्या दे दे.....कोई भरोसा नही। बोलो ज्वालामाई की....जय ।

शहरी मन सोचता है कि इस छोटी जगह पर क्या होगा देखने के लिए! पर शक्तिनगर आकर पता चला की जगह छोटी छोटी जगहों में कितना कुछ छिपा हुआ है। यहाँ संयंत्र के सामने गोबिंद बल्लभ पन्त सागर है। ये रिहंद बाँध के कारण बना हुआ एक बहुत बड़ा जलाशय है। जलाशय कहकर इसके बृहत् परिमाण को समझा नही पाऊंगा। कलकल करते हुए पानी से भरा हुआ एक बहुत बड़ा जलाशय। शहर के टैप से सुबह शाम टपकती पानी की क्षीण धार देखने वाली आंखों के लिए ये दृश्य कैसा था...ये शायद शब्दों में समझा नही पाऊंगा। वर्षा काल में पानी और बढ़ गया। पूर्ण कैसे और पूर्ण होता है...मेरे लिए ये उसका जीवंत उदहारण था। पानी बढ़ते ही जलाशय कि गंभीरता भी मानो बढ़ जाती थी जैसे उसे अपनी अधिक जिम्मेदारियों का ज्ञान हो। शहरी मन अब गमले में लगे पौधे और रास्तो पर ठहरे पानी से आगे की प्रकृति देखने के लिए अभ्यस्त हो रहा था।

....क्रमशः

Friday, July 25, 2008

शहरी मन भी बदलता है....(३)

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"समौ चिद धस्तौ न समं विविष्टः सम्मातरा चिन नसमं दुहाते ।यमयोश्चिन न समा वीर्याणि जञाती चित्सन्तौ न समं पर्णीतः ॥" ऋग्वेद (१०.११७)

दोनों हाथ एक जैसे हैं, पर उनके द्वारा किया गया श्रम अलग है, दो गाय यद्यपि एक ही माता से जन्म लें, पर उनकी दूध देने की क्षमता अलग है। जुड़वा बच्चो का वीरत्व एक जैसा नही होता इसी तरह दो आत्मीयों के धन और साधन भी अलग होते हैं।

जहाँ कुछ ज़मीन जाने के बाद हताश होकर बैठ गए वहीं कुछ ऐसे लोग भी मिले जिन्होंने इसे एक नया मौका माना और इससे लाभ उठाने की सोची। ऐसे ही व्यक्ति का नाम शक्तिनगर के हर व्यक्ति को पता है...और वो नाम है मोती।

हॉस्टल में आने के तुंरत बाद लोगो ने मोती के ढाबे की तारीफ़ कर दी। सन्डे का डिनर मोती के ढाबे पर ...और ये एक परम्परा सी थी। हर नए आने वाले को बड़ी भक्ति श्रद्धा के साथ मोती के ढाबे का माहात्म्य बताया जाता और पहले ही रविवार को दर्शन के लिए ले जाया जाता था। सो रविवार आया और हमें भी ले जाया गया। रेलवे स्टेशन के पास एक टीन के छप्पर वाला ढाबा और जहाँ बहुत सी बेंच रखी थी। लगता था पूरा शक्तिनगर यहीं आया है। हमारे शहरी मन ने नाक-भौं सिकोडी और मन ही मन दिल्ली के चमकदार रेस्टोरेंट को याद किया। मेनू कार्ड नदारद था और फिक्सड थाली। खैर, थाली मंगवायी गयी.....गरम गरम रोटी, खूब कसकर बनायी हुयी अरहर की दाल और उसमे घी, आलू गोभी की सब्जी और रायता। बहुत ही सीधा सपाट खाना पर स्वाद ठीक उन दिल्ली के चमकदार रेस्टोरेंट जैसा नही था.....बल्कि लगा की माँ ने दिल्ली से पैक करके भेजा हो। इतने में एक अधेढ़ सा आदमी आया, जिसने घुटने तक की धोती पहनी थी और एक सफ़ेद सी शर्ट। बहुत विनय के साथ सबको पानी दे रहा था, कहीं किसी को सलाद। हमारी बेंच पर आकर रुका...हमारी थाली की रोटी को छुआ और फिर आवाज़ लगायी..."ऐ बबुआ...देख इनको ठंडा रोटी परोस दिया है...एक गरम रोटी लाओ" और एक गरम रोटी मंगवाकर उसपर घी लगाकर मुझे दिया और कहा..."काहे नही कहा की रोटी ठंडा है..हम नही देखते तो ऐसे ही खा जाते"। ना जाने क्यों...मेरी शहरी आँखें कुछ नम सी हो गयी और अचानक माँ की याद आने लगी।

बाद में पता चला की यही मोती है। जब ये ताप बिजली घर बना तो मोती के पिताजी की ज़मीन भी ले ली गयी। इन लोगो ने कोई नौकरी नही मांगी बल्कि मोती के पिताजी ने वहाँ बसी कालोनी में दूध बेचने का काम शुरू किया। मोती ने भी अपने पिटा के साथ काम शुरू किया और फिर एक चीज़ देखी। उन दिनों बहुत से लोग वहाँ बिना अपने परिवार के रहते थे और खूब सारे प्रशिक्षु तो थे ही। इन सबकी एक समस्या थी....खाना। तो मोती ने एक ढाबा खोला और वहाँ पर एकदम घर जैसा खाना बनाकर खिलाने लगा। अंधा क्या चाहे...दो आँखें....बस कालोनी के लोगो को सस्ते में अच्छा खाना मिल जाता और वहाँ पर बैठकर दो सुख-दुःख की बातें भी हो जाती। साल बीतते गए पर मोती ने न अपना मेनू बदला ना लोगो से अपना व्यवहार। शक्तिनगर में मोती की परम्परा पड़ चुकी थी। अब हर आने वाले को लोग उसके ढाबे पर ले आते और बाकी मोती महाराज अपनी गरमागरम रोटी से उसे बाँध लेते। इश्वर ने मोती को काफ़ी सुपुत्र दिए जिनकी गिनती ईकाई में नही दहाई में है। सो आज मोती ने उनको भी ढाबे खोलकर दे दिए हैं। साथ ही अब मोती के पास ट्रक हैं जिन्हें कालोनी के लोग ट्रान्सफर पर जाते समय किराये पर ले सकते हैं।

इस कंपनी ने जब २५ साल पूरे किए तो प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता निर्देशक श्री श्याम बेनेगल को एक फ़िल्म बनाने के लिए कहा गया और उन्होंने भी अपनी रिसर्च के बाद मोती के चरित्र को फ़िल्म में ढाला और मोती का अभिनय किया प्रसिद्द अभिनेता श्री रघुवीर यादव ने । मोती महाराज ने अपने पिता के चरित्र का अभिनय किया.


मोती अनपढ़ है...उसे अंग्रेज़ी तो नही आती। उसने एम. बी. ऐ. भी नही किया और शायद इसी वजह से इतना आगे बढ़ पाया। हमारे प्रबंधन संस्थान केवल प्रबंधक बनाते हैं...अपने पैरो पर खड़े होने वाले उद्यमी नही। केवल चेष्टा और व्यवहार से भी व्यक्ती आगे बढ़ सकता है...मोती उसी की मिसाल है। ऐसे कितने ही मोती हमारे गाँव देहात में होंगे पर हम उनको नही देखते। हमें सफलता के लिए विदेशी आयाम और प्रमाण-पत्र चाहिए। शहरी मन प्रशंसा के लिए भी विदेशी मापदंड खोजता है।

शक्तिनगर में कुछ ही हफ्ते बीते थे और मै वहाँ के जीवन से परिचित हो रहा था।

......क्रमशः

Wednesday, July 23, 2008

शहरी मन भी बदलता है....(२)

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" एते तये भानवो दर्शतायाश्चित्रा उषसो अम्र्तास आगुः । जनयन्तो दैव्यानि वरतान्याप्र्णन्तो अन्तरिक्षा वयस्थुः ॥ "
देखो....सुंदर उषाकाल के चिरंतन वैभव को , जो अपने विभिन्न रंगों से सजकर हमारे पास आयी हैं। आकाश को भरते हुए और शुभ कर्मों को बढाते हुए इनका आकाश में आरोहण हुआ है।

ऋग्वेद की ये ऋचा ऎसी ही किसी सुबह के लिए लिखी गयी होगी। सुबह के इस अपूर्व दृश्य से ख़ुद को अलग किया और प्रशिक्षण केन्द्र जाने की तैयारी में जुट गए। कुछ नये साथियों से मुलाक़ात हुयी जो यहाँ कुछ महीने पहले आ गए थे और जैसा की ऎसी मुलाकातों में होता है....उन्होंने यहाँ के प्रशिक्षण केन्द्र और पूरी फैक्ट्री के लोगो की अच्छाई और बुराई बता दी। सबसे मजेदार बात ये होती थी की वो सब इंजिनियर थे और मैं मानव संसाधन में...और सबसे ज़्यादा बुराई वो मानव संसाधन की ही करते थे। बड़ा अजीब सा लगता था...और मैं चुपचाप बैठा ये सब सुनता था। उनके अनुसार प्रशिक्षण केद्र के प्रबंधक महोदय साक्षात रावण के अवतार थे और उनके नीचे सब खर दूषण। बाकी मानव संसाधन विभाग भी इसी तरह पुरातन काल के राक्षसों का ही पुनर्जन्म था। ये सब सुनकर सोचता रहा की कुछ महीने बाद मुझे न जाने कौनसे असुर की पदवी मिलेगी? वैसे मेरे आलसीपन को देखते हुए कुम्भकर्ण ही सबसे फिट बैठेगा पर आगे भाई-लोगो की मर्जी....

इन्ही सब को सुनते सुनते सबसे परिचय हुआ और लगा की ये लंका इतनी बुरी भी नही है। कुछ राक्षस काफी अच्छे लगे। सबसे पहले अशोक जी मिले...कौन अशोक जी...अरे वही...रावण के अवतार...प्रशिक्षण केन्द्र वाले। बहुत डरते डरते उनके कमरे में प्रवेश किया था और उनको देखकर डर कुछ कम हुआ। उनका प्रशस्त ललाट उनके सिर के हर सिरे तक फैला हुआ था और काफी चमक भी रहा था। बहुत ही आराम से बोलते थे...वाणी के ज़ोर और गति दोनों के लिहाज से और गज़ब के मजाक करते थे। कुछ देर बात-चीत के बाद उन्होंने सबसे मिलवाया। प्रशिक्षण केन्द्र क्या....अद्भुत से कुछ प्राणियों का जमघट था। एक महिला मिली, जो रिसेप्शन टेबल के ऊपर आलथी पालथी मारकर बैठी थी। पता चला की इनकी ज़मीन सरकार द्वारा ली गयी थी और बदले में नौकरी दी गयी। किसान की बेटी ऑफिस में परिचारिका बन गयी और समय के साथ साथ ज़मीन के साथ साथ अपनी सुध बुध भी खो बैठी। सरकारी नौकरी में निकाला नही जाता, सिर्फ़ ऐसी जगह तबादला करते हैं जहाँ आप कम से कम नुकसान कर सकें...सो इन्हे भी इस केन्द्र में बिठा दिया गया। अब इनकी तनख्वाह पर इनके लड़के अपना खर्चा चलते हैं और सुनते हैं ..गाहे बगाहे कुछ काम भी करते हैं। बीच बीच में ये लड़के अपनी अम्मा को लोन लेने के लिए भी उकसाते हैं। एक बार ये महिला आई और कहा.."हमका मोटर साइकिल के लिए लोन चाही"। अब सरकारी कानून कहता है की लोन उसे मिलेगा जिसके पास लाइसेंस हो। सो उनके सुपुत्रों ने ५० साल की उस प्रौढा का मोटर साइकिल लाइसेंस भी बनवा दिया...और वो भी फर्जी नही साहब....बिल्कुल चमचम करता हुआ, सरकारी मुहर वाला असली लाइसेंस। धन्य है भारत.....जहाँ एक मानसिक रूप से विचलित प्रौढा का ड्राइविंग लाइसेंस भी बन जाता है और हम कहते हैं की नारी सशक्तिकरण नही हुआ!!!

एक और इसी प्रकार का व्यक्ति दिखा...जिसे उसके लड़के सहारा देकर लाये और उपस्थिति दर्ज कराने के बाद ले गए। ये भी एक ऐसे ही भू-विस्थापित व्यक्ति था...जिसने ज़मीन भी दे दी, नौकरी भी ले ली पर आत्म-निर्भर किसान से नौकर बनने का मानसिक सफर तय नही कर पाया और देसी शराब का आदी हो गया।

ऐसे कितने और भी लोग मिले। सरकार कुछ पैसा देती है और उस पैसे को भुनाने के लिए शराब के ठेके खुल जाते हैं। एक -आध साल में पैसा ख़तम...ज़मीन गायब, और फिर अगर नौकरी भी न मिले तो शहर का रास्ता पकड़ना। गाँव से शहरी झुग्गियों तक की यात्रा का अंत तो मेरी शहरी आंखों ने देखा था...यहाँ उस यात्रा की शुरुआत भी देख ली। कहते हैं कि जब यहाँ पर इतने बाँध और ताप बिजली घर बने तो तत्कालीन प्रधान मंत्री ने कहा की हम इस जगह के लोगो के जीवन का स्टार स्विट्जरलैंड के बराबर कर देंगे। लोगो ने विश्वास किया था और ज़मीने सौंप दी.....काश कि इन लोगो को उस पल अविश्वास में पला-बढ़ा शहरी मन मिल जाता!

......क्रमशः

शहरी मन भी बदलता है....

मेरे शहरी जीवन को पहली ठेस तब लगी जब मैंने शक्तिनगर स्टेशन देखा। दिल्ली महानगर में पैदा हुआ और पला बढ़ा। २ साल पांडिचेरी में बिठाये पर वो भी रुरल एरिया नही था। फिर भारत के सबसे बड़े ताप बिजली निर्माण कंपनी में नौकरी मिली तो प्रशिक्षण काल दिल्ली के पास नॉएडा में बिताया। प्रशिक्षण के दौरान आदेश मिला की ६ माह का अगला प्रशिक्षण शक्तिनगर में होगा। मेरे शहरी दिमाग में ऐसा कोई नक्शा नही था जहाँ इस नाम की कोई जगह दिखती हो। पूछने पर पता चला की बनारस के २५० की.मी.दक्षिण पूर्व में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर रिहंद बाँध के पास ये ताप बिजली घर है। ये भी पता चला की यहाँ जाने के लिए लखनऊ से ट्रेन पकड़नी होगी। खैर, टिकेट कटवाया गया और हम अपने एक साथी प्रशिक्षु के साथ लखनऊ रवाना हुए और लखनऊ से त्रिवेणी एक्सप्रेस से यात्रा आरम्भ की। एक के बाद एक स्टेशन, फिर अलाहाबाद और उसके बाद के स्टेशन के नाम भी नही सुने थे। कुछ ऐसे स्टेशन दिखे जहाँ तब भी एक ढिबरी के प्रकाश में स्टेशन मास्टर सिग्नल दिखा रहे थे। ऎसी चीज़ें तब तक मैंने केवल फ़िल्म में देखी थी.....सब कुछ थोडा अजीब सा लग रहा था।

खाना खाया, सोये और फिर जगे तो लोगो से सुना शक्तिनगर आने वाला है.....आलसी मन बोला की थोड़ी देर चादर तान कर और सो लें। अबकी बार नींद खुली तो शक्तिनगर आ चुका था। समान समेटा और हमारा साथी ट्रेन के दरवाज़े तक गया और ज़ोर से बोला....अरे दादा, हम ग़लत जगह आ गए...ट्रेन तो यार्ड में आ गई है। हडबडा के गए....देखा तो प्लेटफोर्म नदारद था। एक गुज़रते हुए आदमी से पूछा तो पता चला की यही स्टेशन है और यहाँ कोई प्लेटफोर्म नही है....सामान लेकर नीचे कूदना ही एकमात्र उपाय है। मन ही मन खूब कोसा कंपनी को...और कोई जगह नही मिली थी...अरे कम से कम लखनऊ में ही बनवा देते। पर अब क्या करते...समान सँभालते हुए एक टूटे से रिक्शे में बैठ ट्रेनिंग सेंटर पहुंचे और हमें हॉस्टल में जगह दी गयी। हॉस्टल के चौकीदार ने चाबी देते हुए बड़े इत्मीनान से कहा..."रात को निकलना नही...इहाँ बहुत सौंप बा...और बालकोनी माँ कपडा ध्यान से सुखाई...नही तो ई लंगूर कपडा लत्ता उठा के ले जाब "। उसके कहने के ढंग से लग रहा था जैसे ये कितनी नोर्मल बात है...और हमारी शहरी जान सूख कर काँटा हो रही थी। सच कहूं...अपने ऊपर बहुत तरस आ रहा था। हॉस्टल में अपने बाकी साथियों से मिले....बहुत अनमने भाव से खाना खाया और किस्मत को कोसते हुए सो गए।

हमें सुबह जल्दी जागने की बुरी आदत है, सो जाग गए। बालकनी में गए.....और पहली बार ख़ुद को इतना चुप-चाप महसूस किया। सुबह की पावन निस्तब्धता, सद्यस्नाता किसी पुजारिन सी, ओस में नहायी हुयी सुबह। पक्षियों का कूजन भी मानो उस शान्ति को बढ़ा रहा था। चारो तरफ़ हरियाली, एक छोटी सी हरी भरी पहाडी और एक निर्जन सी रेल लाइन....ये कैसी जगह थी? ऐसी सुबह में मन करता है की खूब साँस लूँ...और इस सुबह की महक को पोर पोर में क़ैद कर लूँ। अब तक जो संगीत सीखा था वो याद आ रहा था। शायद पहली बार मुझे समझ आया की प्रातः काल में भैरव राग के शुद्ध स्वर क्या जादू जागते होंगे। मेरा शहरी मन ओस में धुल चुका था और शक्तिनगर मेरी यादों में बसने के लिए तैयार था.......

.......क्रमशः

Friday, July 18, 2008

झूठी कहानी

हर रात एक नयी कहानी


हर नयी कहानी में वही पुराने राजा रानी


परियों का देश, उड़ने वाला घोडा


सुंदर राजकुमारी दुष्ट जादूगर


खूब सारी हँसी में दुःख भी थोडा


बिटिया और कुछ नही मांगती


बस रोज़ एक नयी कहानी


कैसे बताऊँ उसे............


अब ये कहानी कहने का मन नही करता है


उसकी आंखों में सपने बुनने से मन डरता है


आज राजकुमारी को कोई दुष्ट जादूगर


जन्म से पहले ही सुला देता है

और अगर नही सुलाता है


तो एक डर भरा जीवन उसे अपनी और बुलाता है

डर ..... भरे शहर अकेले आने जाने का

तेजाब की तेज़ आंच में झुलस जाने का
किसी राजकुमार का सपना आँख में बसाकर

फूलों के महल को मन में बिठाकर

दहेज़ kii बलिवेदी पर मिट जाने का

राजा रानी असहाय से निष्क्रिय होकर देखेंगे

बाकी सब केवल सुहानुभूति के फूल फेकेंगे

ऐसे में एक बेटी के बाप का मन रोता है

फिर भी बिटिया की जिद है.....

वो उसे एक अच्छे राजा रानी की कहानी सुनाकर

हर रात झूठ का घूँट भरकर सोता है


Wednesday, July 16, 2008

कवि, क्यों ऐसे हो

तुम लिखते विप्लव के गीत

देते प्रलय को आमंत्रण
सृष्टि की गर्भ व्यथा जान
क्यों करते काल का आवाहन

क्या मोह नही है तुमको भी
इन रँगों से, इन छन्दों से

इस भ्रमर गीत के गुँजन से
मायावी शब्दों के बन्धों से


फिर क्यों इस पुलकित उपवन में
तुम दहन कामना करते हो
नव वसन्त की हरी शिरा में
पतझड़ का विष क्यों भरते हो


तुष्ट नही क्या सुख के क्षण से

चिर दुखों का पथ चुनते हो
अन्तर से लेकर मर्म तंतु

एक व्यथा कथा तुम बुनते हो


किस समाज ने, किस रीति ने
किस रूढि ने क्लान्त किया

बन चिता अनल जो दहके तुम

तो किस ज्वाला को शांत किया

हिमगिरि सा लेकर स्थिर मानस

शांत किया अस्थिर मन को
शब्दों मे भर पिघला लोहा
तुम परुष बनाते जन-जन को

ये कुलिश कुठार कठोर छन्द

हैं फिर भी स्निग्ध सरल प्राण
कवि कैसे समझूँ मन तुम्हारा
सब हार के गाये जो जय-गान


कवि अपना मन दो मुझको
मैं बन कर देखूँ दावानल
सुधा-मोह से मुक्त हो जाऊँ

मैं बनूँ काल का हालाहल