Sunday, June 15, 2008

अनगढ़ सुर

मेरे सुर मुझ जैसे ही अनगढ़ से हैं
बेलाग किसी जीवन से हैं ये निकले
सभ्य नही ये निपट निरे और अनपढ़ से हैं

किसी बसंती पवन का बनके झोंका

अमराई से लड़ जाएँ ये लगे जो मौका

जहाँ मन हो वहीं आठवाँ सुर लगाएं

बंदी रागों से दूर खड़े ये अल्हड़ से हैं

मेरे सुर मुझ जैसे ही अनगढ़ से हैं

रूठा रूठा बादल ज्यों हौले से गरजे

दोपहरी को अँधेरा कर झम-झम बरसे

तपता आँगन जानके भी जो गिरती बारिश

जिद्दी बचकानी बारिश जैसे अक्खड़ से हैं

मेरे सुर मुझ जैसे ही अनगढ़ से हैं

हरसिंगार की भीनी खुशबू भरना चाहें

अमलतास के फूलों सा ये झरना चाहें

जलकर तपकर पलाश सा साज सजायें

कोमल फूलों के बीच खिले कुछ पत्थर से हैं

मेरे सुर मुझ जैसे ही अनगढ़ से हैं

Saturday, June 14, 2008

मौत....एक पड़ाव

कौन?

अच्छा.... मौत
आओ दोस्त, बैठो
कुछ बात करो , कुछ कहो, कुछ सुनो,

कुछ मेरे साथ किस्से बुनो


कुछ किस्से शहरज़ाद के

जिसने तुमको बहलाने के लियेसुनायी थी

कहानियां एक हज़ार एक


और वो जो तुमने देखा होगा
जंग के मैदानो में

जिस्म की दुकानो में
शहर के वीरानों में

टूटते मकानो में

उन सबके किस्से कह सकते हो
आख़िर कब तक इन सबको सीने मे लिये रह सकते हो


जानता हूँ
तुम्हे कोई नही चाहता
तुमको कोई गले नही लगाता
कोई नज़र नही मिलता

कोई घर नही बुलाता

जो रोज़ भूख के मारे तुमसे मदद माँगता है
तुम्हारे आने पर

वो भी तुमसे दूर भागता है


तुम निराश मत होना

ये सब अभी कच्चे हैं
तुम्हारी उमर के सामने बच्चे हैं

धीरे-धीरे तुमको समझ जायेंगे

फिर तुम्हरी गोद मे सिर रखकर
हमेशा के लिये सो जायेंगे

Sunday, June 8, 2008

पराये शहर की बारिश...

आज बारिश हो रही है


पानी का रँग वही


आवाज़ भी


पर वैसा गीलापन नही


जो घर पर होता था


जो गिरता था थके तन पर


और मन को भिगोता था


नही......ये वो बरसात तो नही


जो मेरे शहर में आती थी


पराये शहर की बारिश


कुछ खारी होती है शायद.......



Monday, June 2, 2008

एक घाव ये भी...

कुछ पल जो गहरे बैठ गए

उनसे रिसते ख्यालों पर

शब्दों के फाहों से

लगाया है मरहम

पर उनपर जमती क़तरों की भयानक तस्वीर

कर देती है मजबूर

के उन्हें कुरेदा जाए बार-बार

ताकी पल का हरापन दिखता रहे

कतरा-कतरा ही सही

पर कोई चटख सुर्ख ख्याल रिसता रहे

नसों पर दर्द का तंज़ कसा जाए

कसमसा उठे हर धड़कन

चरमरा जाएँ सोच के दायरे

ताज़ा पल के बोझ से

गहरायी की जो हूक हो

उसके पाटों में फंसा

हर पुराना घाव पिसता रहे

कतरा-कतरा ही सही
पर कोई चटख सुर्ख ख्याल रिसता रहे