मेरे सुर मुझ जैसे ही अनगढ़ से हैं
बेलाग किसी जीवन से हैं ये निकले
सभ्य नही ये निपट निरे और अनपढ़ से हैं
किसी बसंती पवन का बनके झोंका
अमराई से लड़ जाएँ ये लगे जो मौका
जहाँ मन हो वहीं आठवाँ सुर लगाएं
बंदी रागों से दूर खड़े ये अल्हड़ से हैं
मेरे सुर मुझ जैसे ही अनगढ़ से हैं
रूठा रूठा बादल ज्यों हौले से गरजे
दोपहरी को अँधेरा कर झम-झम बरसे
तपता आँगन जानके भी जो गिरती बारिश
जिद्दी बचकानी बारिश जैसे अक्खड़ से हैं
मेरे सुर मुझ जैसे ही अनगढ़ से हैं
हरसिंगार की भीनी खुशबू भरना चाहें
अमलतास के फूलों सा ये झरना चाहें
जलकर तपकर पलाश सा साज सजायें
कोमल फूलों के बीच खिले कुछ पत्थर से हैं
मेरे सुर मुझ जैसे ही अनगढ़ से हैं