Thursday, September 20, 2007

अब क्या कहें?

क्या कहें?

शेष भाग से आगे......

हमनें ये तो देख लिया कि कैसे हमारे पास खबरों के प्रसारण की सुविधा बहुतायत में है पर खबरें कम। प्रसारण की सुविधा कि जगह माध्यम कहना शायद ज़्यादा ठीक होगा। सुविधा इसलिये नही कह सकते क्योंकि सुविधा दिखती नही.....कई सुनामी आकर चले जाते हैं और तटीय इलाकों के मछुआरों को छोड़कर बाक़ी सबको पता चलता है सुनामी के आने के बारे में। इसीलिये कहा है कि माध्यम बहुत सारे हैं।

खैर, मुद्दा था खबरों कि कमी, तो उसी पर वापिस आते हैं। हर चैनल और कई अखबारों ने अपने संवाददाता
हर ओर तैनात रखे हैं और सबको आदेश यही है कि खबर दिखती है तो जनता को दिखाओ, नही है तो बनाकर दिखाओ। पहली स्थिति हम हर रोज़ देखते सुनते हैं, पर दूसरी स्थिति का भी दर्शन होता है। हाल ही में दिल्ली में हुये उमा खुराना काण्ड में कुछ ऐसा ही देखने को मिला। पहले पहल इस कहानी को समाज में जागरूकता लाने और व्याभिचार को सबके सामने लाने की चेष्टा के रुप में लाया गया। आशातीत फल भी मिला....लोगों के आक्रोश और आंदोलन के रुप में। एक खबर से दूसरी खबर का janma हुआ।

ये जन आंदोलन और स्कूली छात्राओं की khabar अपने आप मे ही काफी rochak हो गयी। यहाँ रोचक शब्द का प्रयोग काफी असंवेदनशील लगता है। बात चुभती तो है पर सच भी यही है। यहाँ स्त्री और यौन शोषण जैसा विषय था और लोगो को ऐसे विषय काफी जल्दी प्रभावित करते हैं। अगर बात ये होती की किसी छात्र को कोई बहुत बड़ी बीमारी है तो बस एक चोटी खबर होती, और वो आगे जन आंदोलन जैसी नयी खबरों को जन्म नही देती। खैर, वस्तुस्थिति ये रही की बनायी हुई खबर ने किस प्रकार देश, समाज और कानून को नचाया और हमने देखा की कैसे हम अफवाहों के दौर में रहते हैं।

तो अब ये भी पता चला की खबरों कि कमी के चलते कृत्रिम खबरें बनायी जा रही हैं, जिससे काफी नुकसान भी हो सकता है। तो प्रश्न ये है कि इसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा? क्या चैनल पर पूरा दायित्व देकर हम अपना हाथ झाड़ लें या फिर इसपर विचार करें की ये खबरे हमारे देश-काल-समाज का प्रतिबिम्ब हैं और इसलिये हम सब भी इसके लिए उत्तरदायी हैं?

क्रमशः..................

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