Saturday, December 29, 2007

फितरती दाग़

मेरी फितरत से नाराज़ मेरे दोस्त सुनो
मेरे रंगों के बिखरे सभी तार बुनो
कि तुमको भी कोई ख्वाब नया मिल जाये
मेरी फितरत पर लगा दाग यों ही धुल जाये

आसमाँ से भी तो पूछो ये बरसता क्यों है
आँख में बूँद लिए दिल ये तरसता क्यों है
कि तुमको भी कोई टूटा ख्वाब मिल जाये
मेरी फितरत पर लगा दाग यों ही धुल जाये

नींद के पन्ने इसलिए मैंने संभाले हैं
रात भर चलते रहे , पाँव भर छाले हैं
कि तुमको भी छालो से सना ख्वाब कोई मिल जाये
मेरी फितरत पर लगा दाग यों ही धुल जाये

बस्तियों से अपना रुख ही जिसने मोड़ लिया
रेत की उड़ती छाँव को ही खुद पे ओढ़ लिया
कि तुमको भी ख्वाब बंजारा कोई मिल जाये
मेरी फितरत पर लगा दाग यों ही धुल जाए


"ये कविता हमारे मित्र 'मस्तो' की एक टिप्पणी से प्रेरित है, इसीलिए उन्ही को समर्पित भी है"

Tuesday, November 27, 2007

द्वंद्व समास

एक होने का स्वप्न लिए
हमने समय से संधि की थी
पर न समय बदला
ना हम
ना तुम
एक स्वर ना हो पाए कभी
आज भी केवल जुडे हुए से
द्वंद्व के भीतर खडे हुए से
एक शब्द नही
बस समूह भर बन कर रहते हैं
शायद हमारे रिश्ते को
द्वंद्व समास कहते हैं





Wednesday, November 21, 2007

जो किया नही....

प्रिये.....
तुमने अपने लिए सुननी चाही थी
कोई सुन्दर उपमा
खेद रहा,
मैं कोई तरल सरल उपमा भी तुमको दे ना पाया
कोई गीत तुम्हारी सुन्दरता पर कह ना पाया
आषाढ़ मेघ को देख भी मैं छंद हीन था
सारे सरस स्वरों में मेरा स्वर क्षीण था

खेद रहा,
मेरे इन कटु शब्दों के कंटक पथ पर
कभी धूमिल कभी जलती सी भावो की छाया
इन धूमिल सत्यों को कविता कहते कहते
प्रेम का कोई jhootha vaadaa भी दे नही पाया

खेद रहा,
जीवन को बस झोंक दिया संग्रामो में
रक्त लुटाया औने-पौने दामो में
पर तुम्हारे लिए कभी एक गुलाब भी
ह्रदय रक्त से अपने रक्तिम कर नही पाया


खेद रहा,
मैंने सबके दुखों को पाथेय बनाकर
नीलकंठ बनने का था खेल रचाया
तुमने जो दी थी मुझको अमृत धारा
मैं बस अपना गरल ही तुमको दे पाया

प्रिये,क्षमा करो
यह कहकर तुमको लज्जित नही करूंगा
मन की ग्लानि पर कोई मरहम नही रखूंगा
आज विदाई की वेला में बस इतना संबल दो
जीवन जो आएंगे, उसमे भी होंगे ऐसे रण
पर साथ तुम्हारा हो और मेरा अटल हो प्रण
क्लिष्ट कलुष पथो पर जब भी मैं स्वयं को पाऊँ
जीवन के विष संग तुम्हारे बाँट मैं पाऊँ

Monday, September 24, 2007

मेरे लिए बस दीप

अगणित तारे इन हाथों मे न संभलेंगे
मेरे लिये बस छोटा सा दीप जलाओ
नभ सा विस्तार भला क्या दे पाऊँगा
चाहो तो इस मन मे ही सँसार बसाओ

तुमको मुक्त गगन मे ही उडना प्रिय था
मै भी शाखा के ममता से मुक्त नही था
तुम उडे पर मै अब भी हूँ आस मे बैठा
थककर शायद तुम इस शाखा पर आओ

तुमको भाया है सरिता सा बहते रहना
सागर मे मिलना उसकी ही बातें कहना
मैं तट बन इस आशा के साथ चला हूँ
कुछ बातें शायद मुझसे भी करते जाओ

नव बसन्त के पुष्पों को मै तोड न पाया
इसीलिये पतझड के पत्ते ओढ मै आया
पुष्पहार तो नही पर तुम छाँव जो चाहो
इन पत्तों से ही अपना पर्ण-कुटीर बनाओ

अगणित तारे मेरे हाथों मे न संभलेंगे
मेरे लिये बस छोटा सा दीप जलाओ

Sunday, September 23, 2007

ज़िन्दगी कि रेल

स्टेशन के बाहर खडा भिखारी
खोमचेवाला, कुली, मदारी
रिक्शे वाला भैया या गुमटी वाला पनवाडी
सब देखते हैं सपने
कि एक दिन उनकी गाडी पटरी पर आयेगी
फिर राजधानी की स्पीड से
उनको आगे ले जायेगी
और उस राजधानी कि उम्मीद में
रोज़ लोकल की भीड सा घिसते हैं
जीवन की पटरियों कि फिश-प्लेट मे फँसे
चुपचाप खडे पिसते हैं

प्लेटफार्म सा अपनापन
ये भी दिखलाते हैं
तभी तो हर आने-जाने वाले को
कभी चाचा, कभी भैया, कभी अम्मा बनाते हैं
बुलाते हैं ,दिखाते हैं
कराहते हैं ,सराहते हैं
कभी टहलाते कभी बनाते हैं...
फिर चुप हो जाते हैं
क्योंकि अगला किसी रिश्ते से मुकर जाता है
सामान नही लाता
पान नही खाता
आधे दाम वाली इम्पोर्टेड शर्ट पर नही ललचाता
तमाशा नही देखतापैसा नही फेंकता
रिक्शे से मुँह चुराकर
पैदल ही चला जाता है
ऐसे अर्थहीन रिश्ते को कौन भला निभाता है
ये भी नही निभाते हैं
आँख से ओझल और पुकार के बाहर चले बाने पर
कुछ किस्मत की तरह
एक भद्दी सी गाली से मन भरकर
किसी और पुख्ता रिश्ते की खोज मे लग जाते हैं

रात होती है
पनवाडी कि ढिबरी जलती है
कुली , खोमचेवाला, मदारी
रिक्शेवाला भैया और भिखारी
सब थककर सोने जाते हैं
और रात की पाली के कुली मदारी
खोमचेवाला, रिक्शेवाला और भिखारी आकर
अपनी राजधानी के सपने सजाते हैं
वो भी रिश्ते सजाते हैं
अऊटर सिग्नल पर खडी ज़िन्दगी के लिये
प्लेटफार्म पर अपनी पलकें बिछाते हैं

Friday, September 21, 2007

अब क्या कहें

शेष भाग

आज की इस परिस्थिति का उत्तरदायी आज का समाज है। समाज शब्द से हमारी व्यक्तिगत ग्लानि को छुपाने की कोशिश सी लगती है, इसीलिये स्पष्ट कर दूँ कि समाज मतलब हम सब। दूसरो के दुःख को बाज़ारोपयोगी वस्तु बनाने का श्रेय न्यूज़ चैनल को नही, हमारा है। हम आतुर रहते हैं ऎसी खबरों के लिए क्योंकी परोक्ष रुप से ये खबरें सभयता के लिबास मे छुपी इंसानी विकृतियों को उसका भोजन देती हैं।

हम सबको अच्छा लगता है कि कोई भयानक सी, कुत्सित सी खबर आये, जिस देखकर, सुनकर हमें मज़ा मिले और साथ ही हम दूर से उनपर दया भाव दिखाकर आत्म-गौरव महसूस कर सकें। हमारी इसी सामूहिक विकृत मानसिकता को भुनाते हुये ये न्यूज़ चैनल झूठी-सच्ची खबरों के साथ हमारे सामने आते हैं और हम इसको अपने सामान्य ज्ञान मे वृद्धि जानकार निगल जाते हैं.

Thursday, September 20, 2007

अब क्या कहें?

क्या कहें?

शेष भाग से आगे......

हमनें ये तो देख लिया कि कैसे हमारे पास खबरों के प्रसारण की सुविधा बहुतायत में है पर खबरें कम। प्रसारण की सुविधा कि जगह माध्यम कहना शायद ज़्यादा ठीक होगा। सुविधा इसलिये नही कह सकते क्योंकि सुविधा दिखती नही.....कई सुनामी आकर चले जाते हैं और तटीय इलाकों के मछुआरों को छोड़कर बाक़ी सबको पता चलता है सुनामी के आने के बारे में। इसीलिये कहा है कि माध्यम बहुत सारे हैं।

खैर, मुद्दा था खबरों कि कमी, तो उसी पर वापिस आते हैं। हर चैनल और कई अखबारों ने अपने संवाददाता
हर ओर तैनात रखे हैं और सबको आदेश यही है कि खबर दिखती है तो जनता को दिखाओ, नही है तो बनाकर दिखाओ। पहली स्थिति हम हर रोज़ देखते सुनते हैं, पर दूसरी स्थिति का भी दर्शन होता है। हाल ही में दिल्ली में हुये उमा खुराना काण्ड में कुछ ऐसा ही देखने को मिला। पहले पहल इस कहानी को समाज में जागरूकता लाने और व्याभिचार को सबके सामने लाने की चेष्टा के रुप में लाया गया। आशातीत फल भी मिला....लोगों के आक्रोश और आंदोलन के रुप में। एक खबर से दूसरी खबर का janma हुआ।

ये जन आंदोलन और स्कूली छात्राओं की khabar अपने आप मे ही काफी rochak हो गयी। यहाँ रोचक शब्द का प्रयोग काफी असंवेदनशील लगता है। बात चुभती तो है पर सच भी यही है। यहाँ स्त्री और यौन शोषण जैसा विषय था और लोगो को ऐसे विषय काफी जल्दी प्रभावित करते हैं। अगर बात ये होती की किसी छात्र को कोई बहुत बड़ी बीमारी है तो बस एक चोटी खबर होती, और वो आगे जन आंदोलन जैसी नयी खबरों को जन्म नही देती। खैर, वस्तुस्थिति ये रही की बनायी हुई खबर ने किस प्रकार देश, समाज और कानून को नचाया और हमने देखा की कैसे हम अफवाहों के दौर में रहते हैं।

तो अब ये भी पता चला की खबरों कि कमी के चलते कृत्रिम खबरें बनायी जा रही हैं, जिससे काफी नुकसान भी हो सकता है। तो प्रश्न ये है कि इसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा? क्या चैनल पर पूरा दायित्व देकर हम अपना हाथ झाड़ लें या फिर इसपर विचार करें की ये खबरे हमारे देश-काल-समाज का प्रतिबिम्ब हैं और इसलिये हम सब भी इसके लिए उत्तरदायी हैं?

क्रमशः..................

Wednesday, September 19, 2007

अब क्या कहें?

अद्भुत सी स्थिति दिखाई पड़ती है। खबरों के चैनल बहुतायत में होने के कारण खबरों का अकाल पड़ गया है। अकाल कि स्थिति मे मनुष्य जो मिले जैसा मिले वैसा ही भोजन कर लेटा है..आजकल खबरों की भी कुछ ऎसी ही स्थिति है। आप केवल कुछ अलग हटकर चलिए, तो आप खबर हैं। मज़े की बात ये है कि अगर आप बिल्कुल सीधे पथ पर भी चलते हैं, तो भी आप खबर हैं।

जब खाद्यान्न की कमी हुयी, तब मनुष्य ने कृत्रिम खाद्यो को खोजा। भोजन के सार तत्वों को लेकर आसानी से पचने वाली कैप्सूल बनाकर लोगो को दे दी गयी। आजकल खबरों की भी ऐसी ही अवस्था है। अब सोनिया जी हमेशा ही कोई नयी बात नही कर सकती (हालांकि इस पर भी शक है कि कर सकती भी हैं कि नही), आडवानी जी हमेशा रथ पर आरूढ़ होकर नही रह सकते, बाजपेयी जी वैसे ही योग-निद्रा मे चले जाते हैं और लालू जी को रेल भी चलानी है। ऎसी स्थिति मे फिल्म अभिनेता काम आते हैं। मगर वो भी कितनी देर? पहले उनके सामाजिक औसत से अधिक विवाह-विच्छेद और बाक़ी संबंध लोगो मे एक उत्सुकता जागते थे। आजकल ये सब "कहानी घर घर की' हो गया है। कतिपय धारावाहिकों ने इन सबका इतना दिखा दिया कि आजकल ऐसी स्थितियाँ किसी को असाधारण नही लगती...इसीलिये ये अब खबरों के दायरे से बाहर हो गया है।

तो अब क्या बचा....मरते किसान और इस प्रकार कि अन्य दुर्घटनाएं तो हाशिये से बाहर ही नही आ पायी, खबर तो दूर की बात है। हाँ, दुर्घटना अगर किसी बलात्कार से जुडी हो, उसके लिए कुछ उम्मीद की जा सकती है। यदा-कदा सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष मे जाकर और फिर सकुशल लौटकर कुछ दिनों कि खबरों का जुगाड़ कर लेटी हैं। मगर चौबीस घंटे चलते रहने वाले न्यूज़ चैनल की ज़रूरत के सामने ये सब ऊँट के मुँह मे जीरा है।

इतना तो स्पष्ट हो गया की खबरें कम हैं और उनकी माँग ज़्यादा.

क्रमशः...........

Saturday, September 8, 2007

मेरी बिटिया की लोरी

नींद पेड के पत्ते
पत्तों पर एक चिड़िया
चिड़िया गाना गायेगी
तो सो जायेगी गुडिया

नींद का उड़ता घोडा
टक-बक करता आये
गुडिया बैठेगी उसपर
वो बादल सा उड़ जाये

पानी - पहाड़ के ऊपर
उड़ता उड़ता जाएगा
इन्द्रधनुष के कोने में
परीलोक तब आयेगा

परीलोक की मछली
चश्मा पहन के उड़ती
शेर और बकरी दोस्त हुये
उनकी शकल भी मिलती

रँग-बिरंगी परियाँ
लगती प्यारी-प्यारी
कुछ हैं दुबली-पतली
कुछ थोड़ी सी भारी

गुडिया रानी को लेकर
घोडा वहाँ जो आये
परियाँ नाचेंगी झम-झम
और हाथी गाना गाये

पिकनिक होगी दिन भर की
खेलेंगे सब मिलकर
खाना पीना शोर मचाना
करना है जी भर कर

ऐसा सपना देखो
मेरी गुडिया रानी
सपनों में भी तेरे
आंखों में ना हो पानी

Monday, September 3, 2007

पल को अपनाओ

वक़्त के पिंजरे में क़ैद
कुछ दिन , महीने, साल
पुराने हैं बदरंग
नए कुछ बेहाल
बस ये एक पल है बाहर
आओ, इसी से प्यार कर लें
अपनी यादें भर इसमे
इसको ही अपना कर लें

ये पल एक पुल है
एक सीमाहीन अँधेरे से
एक खत्म ना होने वाली चुप्पी तक
बिछा हुआ है
रोशनी के नन्हे से तार पर
तन के खिंचा हुआ है
ये पल चुप्पी से पहले की हूक है
कविता है , कवि भी
फिर भी कितना मूक है
आओ, इसी को अपनी आवाज़ कर लें
अपनी यादें भर इसमे
इसको ही अपना कर लें

Friday, August 31, 2007

मुझे इतना तो बस कहने दो

मुझे इतना तो बस कहने दो
इन शब्दों में ही बहने दो

कितने जतन से था संजोया
सपना था जो खोया-खोया
वो सपना अब थककर सोया
उसे सपनों में खोये रहने दो

मुझे इतना तो बस कहने दो
इन शब्दों में ही बहने दो

आंखों से पिघला एक तारा
मीठे दर्द का स्वाद ये खारा
ये खारापन ही जीवन सारा
ये खारापन मुझे सहने दो

मुझे इतना तो बस कहने दो
इन शब्दों में ही बहने दो

टूटा टूटा सा व्याकुल क्षण
टूटे मन का ज्यों दर्पण
इस दर्पण के हँसते-रोते कण
उनको गीतों के गहने दो

मुझे इतना तो बस कहने दो
इन शब्दों में ही बहने दो

Monday, August 27, 2007

दहके क्षण

आओ समय की राख कुरेदें
कुछ दहके से क्षण मिल जायें

जिस क्षण को बेकार समझकर
फेंक दिया जीवन से बाहर
वो ही सबसे सुन्दर क्षण था
वापिस उसको कैसे लायें

आओ समय की राख कुरेदें
कुछ दहके से क्षण मिल जायें

क्षणिक खेल था प्रेम हमारा
पर उसका पागलपन गहरा
अब प्रेमहीन निष्प्राण पलों में
वो उन्माद कहाँ से आये

आओ समय की राख कुरेदें
कुछ दहके से क्षण मिल जाएँ

काल की मृगतृष्णा से क्षण
पीछे भागे प्यासा मन
जो जीवन तृष्णा शाँत करे
पीयूष-स्रोत वो कहाँ से पायें

आओ समय की राख कुरेदें
कुछ दहके से क्षण मिल जायें

पहर भर का राग हो जैसे
जीवन अपना बीता ऐसे
कालजयी हो गूँजे हर क्षण
वो शाश्वत गीत हम गायें

आओ समय की राख कुरेदें
कुछ दहके से क्षण मिल जायें

Sunday, August 26, 2007

एक रूह की मौत

साये सरक से जाते हैं
एक खाली रूह गुज़र रही है
वक़्त के गलियारे से
खोखली ज़ंज़ीरों मे उलझती
गुमनाम एक अँधियारे में
पोली दीवारों से टकराती
रूह का एहसास जा चुका है
बहुत कुछ इस दिल की तरह
जो अब टूटते हुये
एकदम सख्त हो गया है
कहीँ दूर के वक़्त में
एक घनी छाँव थी
रूह को तस्कीन थी
मगर छाँव अँधेरे मे नही होती
और रूह धूप से नाराज़
दोनों ठीक थेअपनी जगह
रूह जो धूप को भुलाना चाहती थी
धूप जो रूह को जलाना चाहती थी
आज अधजली सी रूह
धूप से सुलह कर चुकी है
इन सरकते सायो मेएक होकर
रूह खुद छाँव बन चुकी है

गरीब पसीना

पसीना सुर्ख नही होता
परा बहता वो भी है
रगों के परदे में नही
बेशर्म होकर चहरे पर आता है

लहू के बहुत किस्से हैं
लहू बोलता है
पर पसीना बेज़ुबान है
इसीलिये चुप-चाप ही गिर जाता है

अश्क भी गिरते हैं
उनके गिरने में शायरी है
पसीना आमा सी शह है
किसी ग़ज़ल का दाम कहाँ वो पाता है

जज्बातों se सरोकार नही
ललकार और प्यार से परे
सिर्फ भूख के डर से
पसीना पानी की तरह बहता जाता है

पसीना बहुत गरीब है
महलों में उसकी पहचान नही
ग़ुरबत से भरे खेत खलियान में
अक्सर ज़मीन पर पढा पाया जाता है



Friday, August 24, 2007

वक़्त की दौड़

हर शख्स सोचता है दौड़ के पकड़ लेगा
वक़्त की डोर का सिरा,
मगर मिलता नही
क्योंकि हर पल वो सिरा
थोड़ा और आगे बढ जाता है
आदमी भागता रहता है
पर बस एक लम्हे को पकड पाता है

बीते छोर से
कल की ओर तक
जो सफर है कुछ मापी हुई दूरी का
वो बेशुमार पलों का रास्ता
कैसे बन जाता है
आदमी भागता रहता है
पर बस एक लम्हे को पकड पाता है

रस्ते के थके से साये
कुछ झुके से मील के पत्थर
गवाही देते हैं
पलों के गुज़रने की
पर हर बार जाने कैसे
वक़्त एक रात आगे चला जाता है
आदमी भागता रहता है
पर बस एक लम्हे को पकड पाता है

Wednesday, August 22, 2007

चन्द पहलू नींद के

उजडे से इस चाँद के बदले
रात ने माँगी नीँद
पर मिली नही
ख़्वाबों ने हाथ खींचे
रात खडी रही आँख मींचे
पर न नीँद आयी
ना ख्वाब कोई
रात, फिर एक रात
बैरंग सी सोई


एक टूटी फूटी ज़िंदगी
बिछी है मेरे कमरे में
किसी चारपाई की तरह
मैं सोता हूँ उसपर
तो पायों मे चरमराती है बातें
पुराने मूँज सी उधडती हैं यादें
ढीले बदन के साँचे मे ये भी ढलती है
और एक रात ज़िन्दगी के साथ गुज़रती है

क्या बीता कैसे बीता

थके थके से बादल
बरसते नही
सिर्फ उमडते-घुमडते हुये
अपने होने का अहसास कराते हैं
बादल भी मौसम की तरह बीत जाते हैं

आँखें बाट जोहती हैं
झुकती नही
सिर्फ कभी कभी झपकते हुये
किसी नींद की थकान को दिखाती हैं
नींद भी उम्र की तरह बीत जाती है

गुलमोहर खूब जलता है
पर पिघलता नही
सिर्फ एक गिरा हुआ ज़र्द पत्ता
सुर्ख फूलों की कीमत कहता जाता हैं
फूल भी दिन के साथ बीत जाता है

मै चिर पथिक

मै चिर पथिक
मै चिर पथिक
नही पथ ऐसा कोई
जो चले मुझसे अधिक
मै चिर पथिक


उन्माद सा हूँ हृदय मे मैं
कोई मन का भाव हूँ
तेज हूँ मैं सूर्य का भी
मैं ही शीतल छाँव हूँ
काल सागर से उठा हूँ
मैं जो हूँ अमृत मथित
मैं चिर पथिक

गहन सागर में छिपा जो
वो जीने का उफान हूँ
क्षितिज को धूमिल बनाता
प्रलय सा तूफान हूँ
फिर मृत्यु जैसे एक पल से
मैं क्योंकर हूँ व्यथित
मैं चिर पथिक

तटों पर बनाती बिगड़ती
लहरों का अवशेष हूँ
रेत तो सब बह चुकी है
मौन ही में शेष हूँ
मौन की ये मूक भाषा
सुनता नित होता चकित
मैं चिर पथिक

ये लालसा के वृक्ष सुन्दर
फले फूले लग रहे
आशा की इस रात मे
सपनों मे ही जग रहे
इसकी छाया सघन इतनी
कर ना दे पथ को भ्रमित
मै चिर पथिक