Sunday, August 26, 2007

एक रूह की मौत

साये सरक से जाते हैं
एक खाली रूह गुज़र रही है
वक़्त के गलियारे से
खोखली ज़ंज़ीरों मे उलझती
गुमनाम एक अँधियारे में
पोली दीवारों से टकराती
रूह का एहसास जा चुका है
बहुत कुछ इस दिल की तरह
जो अब टूटते हुये
एकदम सख्त हो गया है
कहीँ दूर के वक़्त में
एक घनी छाँव थी
रूह को तस्कीन थी
मगर छाँव अँधेरे मे नही होती
और रूह धूप से नाराज़
दोनों ठीक थेअपनी जगह
रूह जो धूप को भुलाना चाहती थी
धूप जो रूह को जलाना चाहती थी
आज अधजली सी रूह
धूप से सुलह कर चुकी है
इन सरकते सायो मेएक होकर
रूह खुद छाँव बन चुकी है

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