Wednesday, August 22, 2007

मै चिर पथिक

मै चिर पथिक
मै चिर पथिक
नही पथ ऐसा कोई
जो चले मुझसे अधिक
मै चिर पथिक


उन्माद सा हूँ हृदय मे मैं
कोई मन का भाव हूँ
तेज हूँ मैं सूर्य का भी
मैं ही शीतल छाँव हूँ
काल सागर से उठा हूँ
मैं जो हूँ अमृत मथित
मैं चिर पथिक

गहन सागर में छिपा जो
वो जीने का उफान हूँ
क्षितिज को धूमिल बनाता
प्रलय सा तूफान हूँ
फिर मृत्यु जैसे एक पल से
मैं क्योंकर हूँ व्यथित
मैं चिर पथिक

तटों पर बनाती बिगड़ती
लहरों का अवशेष हूँ
रेत तो सब बह चुकी है
मौन ही में शेष हूँ
मौन की ये मूक भाषा
सुनता नित होता चकित
मैं चिर पथिक

ये लालसा के वृक्ष सुन्दर
फले फूले लग रहे
आशा की इस रात मे
सपनों मे ही जग रहे
इसकी छाया सघन इतनी
कर ना दे पथ को भ्रमित
मै चिर पथिक

2 comments:

..मस्तो... said...

khubsurat....
उन्माद सा हूँ हृदय मे मैं
कोई मन का भाव हूँ
तेज हूँ मैं सूर्य का भी
मैं ही शीतल छाँव हूँ
काल सागर से उठा हूँ
मैं जो हूँ अमृत मथित
मैं चिर पथिक
मैं चिर पथिक

Kya khubsurat likha hai dada aapne...
aur wo band...
तटों पर बनाती बिगड़ती
लहरों का अवशेष हूँ
रेत तो सब बह चुकी है
मौन ही में शेष हूँ
मौन की ये मूक भाषा
सुनता नित होता चकित
मैं चिर पथिक
मैं चिर पथिक

har band apne me khuburti samete hai...ek Josh jagaati hai...
मै चिर पथिक
मै चिर पथिक

na jaane kitani baar padhaa hai ise...aur har baar juba.N pe ek hi shbad ata hai... khubsurat.....

with love
..masto...

Piyush k Mishra said...

आपकी लिखी सारी कविताओं में..ये मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है.मनुष्य का जीवन लिख डाला है...जोश और भाव एक साथ.