Wednesday, August 22, 2007

चन्द पहलू नींद के

उजडे से इस चाँद के बदले
रात ने माँगी नीँद
पर मिली नही
ख़्वाबों ने हाथ खींचे
रात खडी रही आँख मींचे
पर न नीँद आयी
ना ख्वाब कोई
रात, फिर एक रात
बैरंग सी सोई


एक टूटी फूटी ज़िंदगी
बिछी है मेरे कमरे में
किसी चारपाई की तरह
मैं सोता हूँ उसपर
तो पायों मे चरमराती है बातें
पुराने मूँज सी उधडती हैं यादें
ढीले बदन के साँचे मे ये भी ढलती है
और एक रात ज़िन्दगी के साथ गुज़रती है

1 comment:

उन्मुक्त said...

अच्छी कवितायें हैं, लिखते चलिये।