Tuesday, May 27, 2008

आँगन का नीम

मेरे आँगन के नीम को शिकायत है मुझसे

उसकी उम्र से बोझिल बाहों का जो सहारा था

जिसे उसने अपनी छाँव में संवारा था

वो झूला आज उससे छूट गया

मेरी बिटिया की डोली है आँगन में

और मेरे आँगन के नीम का दिल टूट गया

जब बिटिया छोटी थी

धूप करती थी कोशिश की उसे छू सके

लाख जतन करती थी की उसे सहलाने को

पर अपनी पत्तियों को हिला हिला कर

लड़ा था यही नीम उसे बचाने को

आज धूप खिल-खिला रही है

सूरज बिट्टू के माथे पर सज कर बैठा है

नीम अपनी हार का दुःख लिए

मुझसे, मेरे आँगन से ऐंठा है

जब बिटिया ने कहना सीखा था

कितनी बातें होती थी नीम से गुप-चुप

अपनी शिकायत, डर और खुशी के किस्से

और सबसे छिपे हुए अपनी ज़िंदगी के हिस्से

आज वो सब हिस्से कोई और लिए चलता है

इस नए राज़दार से मन ही मन

मेरे आँगन का नीम आज जलता है

पर ये पीड़ा, ये दर्द , ये चुभन

ये छूट जाने के आंसू

ये पराया होने की जलन

कहारों की पाँव की धूल में उड़ जाते हैं

मैं और मेरे आँगन का नीम

बस अपने खालीपन से जुड़ जाते हैं

4 comments:

कुश said...

बहुत ही भावपूर्ण रचना.. हमारी बिट्टू है ही इतनी प्यारी..

Piyush k Mishra said...

neem ke jariye apne dil ki baat rakhi hai dada aapne.

bittu ke liye jab bhi likha hai aapne khoobsoorat ban gaya hai wo.jaise bhaav chhalakte se aate hain.

ye kavita bhi bahut bhaavpoorn aur c hhoo jaane wali hai.

डॉ .अनुराग said...

मैं और मेरे आँगन का नीम

बस अपने खालीपन से जुड़ जाते हैं

बहुत खूब पढ़कर गुलज़ार की एक नज्म याद आ गई.....:".कमेटी वाले काट रहे है उसको....."

Saee_K said...

dil ko chhhu gayi ye kavita..

neem ya aap..kaun apne kisse baant raha tha..pata nahi chala..
ek alag hi bhaav mehsoos hua padhte hue...

bittu ko pyaar
:)