Tuesday, May 6, 2008

दर्द

दर्द....किसी शाम के धुंधलके सा,

उतर आता है आँगन में

ओढा देता है मुझको एक चादर कंपकंपाती सी

सिहर जाता है मेरे बदन में कोई शिकायत बनकर

आवाज़ जैसे कोई बीती सी, थरथराती सी

दर्द....किसी शाम के धुंधलके सा,
उतर आता है आँगन में

नसों में अपनी रूह ये भर देता है

एक-एक कर यादो के चिराग करता रोशन

अँधेरा हर कोने में कर देता है

दर्द....किसी शाम के धुंधलके सा,

उतर आता है आँगन में

एक खारे पानी की बूँद में समेट लेता है ज्वार

उठती-गिरती साँसों में भिगोता हुआ

ना जाने कब होने लगता है इससे प्यार

दर्द....किसी शाम के धुंधलके सा,

उतर आता है आँगन में

3 comments:

Piyush k Mishra said...

dard ki bahut sahi vyaakhya hai is kavita mein.
ek ek bhaav utar aaya hai jaise shabdon mein.
shuruaat jitni achhi anth bhi utna hi behtaraeen.

उठती-गिरती साँसों में भिगोता हुआ
ना जाने कब
होने लगता है इससे प्यार

kya baat kahi hai dada.
dard bhi khoobsoorat lagne laga hai.

कुश said...

waah kya baat hai.
yadi dard ise padh le to wo khud sihar jaye.. :)

bahut badhiya rachna.. badhai swikar kare..

डॉ .अनुराग said...

दर्द....किसी शाम के धुंधलके सा,

उतर आता है आँगन में

एक ओर खूबसूरत नज्म....