Monday, June 2, 2008

एक घाव ये भी...

कुछ पल जो गहरे बैठ गए

उनसे रिसते ख्यालों पर

शब्दों के फाहों से

लगाया है मरहम

पर उनपर जमती क़तरों की भयानक तस्वीर

कर देती है मजबूर

के उन्हें कुरेदा जाए बार-बार

ताकी पल का हरापन दिखता रहे

कतरा-कतरा ही सही

पर कोई चटख सुर्ख ख्याल रिसता रहे

नसों पर दर्द का तंज़ कसा जाए

कसमसा उठे हर धड़कन

चरमरा जाएँ सोच के दायरे

ताज़ा पल के बोझ से

गहरायी की जो हूक हो

उसके पाटों में फंसा

हर पुराना घाव पिसता रहे

कतरा-कतरा ही सही
पर कोई चटख सुर्ख ख्याल रिसता रहे

5 comments:

कुश said...

अनुपम रचना.. एक उम्दा प्रवाह लिए हुए.. बधाई स्वीकार करे..

डॉ .अनुराग said...

ताज़ा पल के बोझ से

गहरायी की जो हूक हो

उसके पाटों में फंसा

हर पुराना घाव पिसता रहे

कतरा-कतरा ही सही
पर कोई चटख सुर्ख ख्याल रिसता रहे .......

एक बार फ़िर छा गये ...बंगाली बाबू.... कोई एक ख्याल ही किसी कविता की आत्मा है ....ओर आपकी आत्मा बहुत खूबसूरत है.......

Morpankh said...

Hi Abhijit,

Bahut khushi hui aapko padhkar aur bahut time baad aapko yahan dekhkar. Aasha hai din ba din aapki bitiya aur bhi khoobsurat ho rahi hogi ..:)
bilkul aapki baki rachnyon ki tarah.

Unknown said...

मायूसियों का मजमा है जी में
क्या रह गया है इस ज़िन्दगी में
रुह में ग़म दिल में धुआँ
जाएँ तो जाएँ

Saee_K said...

ताज़ा पल के बोझ से

गहरायी की जो हूक हो

उसके पाटों में फंसा

हर पुराना घाव पिसता रहे

कतरा-कतरा ही सही
पर कोई चटख सुर्ख ख्याल रिसता रहे .......

bhaiyaa..bahut hi khoobsoorat rachna...umda soch...jo sochne par majboor karein...

:)