पिछले तीन दिनों से लगातार टेलिविज़न पर मुंबई में चल रही कार्यवाही देख रहा हूँ। देश से दूर बैठा हुआ सिर्फ़ किसी तरह से मन की दुश्चिंता को मिटाने की कोशिश कर रहा हूँ। मुंबई में रहने वाले अपने मित्रो से उनकी खैर ख़बर जानकर आश्वस्त हो रहा हूँ की इस बार हताहत में मेरा कोई परिचित नही है, इस बार मुझे सिर्फ़ सांत्वना देनी है, इस बार मेरी रोने की बारी नही।
मगर कब तक.....? कितने दिनों भाग्य के साथ आँख मिचौली चलेगी? मृत्यु से कई गुणा भयानक मृत्यु के आतंक के साये में कब तक अपनी सहिष्णुता, सहनशीलता, विवेक को कायम रख पायेगा ये समाज? अविश्वास के राज्य में कितने प्रतिबन्ध लगाकर हम स्वयं को सुरक्षित कर पायेंगे? और इस सुरक्षा का मोल इन प्रतिबंधो से नही बल्कि इन प्रतिबंधो से आहत व्यक्तिगत स्वाधीनता से चुकायेंगे।
बोध शक्ति को सुन्न करने वाली इन घटनाओं के सम्मुखीन होते हुए भी शायद हमें सोचना पड़ेगा की हम आख़िर ये किसका मूल्य चुका रहे हैं? सत्तारूढ़ धृतराष्ट्रों के लोभ और महत्वाकाँक्षा के पाश में दम तोड़ती नीतियों का परिणाम हम भुगत रहे हैं। और सिर्फ़ यही नही....राजनीति के प्रति गहरी उदासीनता और उसे अकर्मण्य नपुंसकों के भरोसे रख देने का जो अपराध हमने किया है, उसका मूल्य भी हमें अपने रक्त से ही शायद चुकाना होगा।
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6 comments:
appne bilkul sahi kaha hai,aab bhi agar ham nahi sambhle to kahi ke nahi rahege
बिल्कुल सही और सटीक ! रामराम !
सटीक कहा!!
aatank ke saaye main ,....sach kitne din aur ye jindgi
क्रोध ,हताशा ओर एक अजीब सी बैचैनी है पूरे देश में के बस अब ओर नही
सबके मान में ऐसा ही कुछ चल रहा है.. हर मन में शोक है.. आक्रोश है.. क्षुब्धता है..
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