Sunday, September 21, 2008

पहचान के दाम

कभी धर्म ,कभी समाज, कभी देश
कभी और कुछ नही

तो सिर्फ भाषा या वेश

जिसने भी दी कोई पहचान

मैं समझता था उसका अहसान
पर बाद मे ये भेद जाना
उनकी प्रखर बुद्धि को पहचाना
आसान किश्तों के लोन की तरह
ये पहचान की एक मुश्त रकम देते हैं
आपको पता भी नही चलता
कब आत्मा को गिरवी रख लेते हैं
अब वो रीति-नीति के नये प्रलोभन फेंकते हैं
उनमे हँसते और फँसते हुये हम

दुनिया अब दूसरे के चश्मे से देखते हैं

8 comments:

MANVINDER BHIMBER said...

कभी धर्म ,कभी समाज, कभी देश
कभी और कुछ नही

तो सिर्फ भाषा या वेश

जिसने भी दी कोई पहचान

मैं समझता था उसका अहसान
पर बाद मे ये भेद जाना
bahut sunder likha hai

ताऊ रामपुरिया said...

दुनिया अब दूसरे के चश्मे से देखते हैं

बहुत सुंदर और गहन भाव हैं !
शुभकामनाएं !

दीपक "तिवारी साहब" said...

बहुत जबरदस्त भाव व्यक्त किए हैं आपने !
धन्यवाद !

भूतनाथ said...

आसान किश्तों के लोन की तरह
ये पहचान की एक मुश्त रकम देते हैं

बहुत गहरी और मार्मिक रचना है !
बधाई आपको !

Udan Tashtari said...

गहरी रचना है.

pallavi trivedi said...

bahut achchi abhivyakti...

डॉ .अनुराग said...

क्या कहूँ भाई......कहने को कुछ नही है....सब कुछ तो तुमने कह दिया है....इस भाषा में पीड़ा भी है ओर सचाई भी.....

ताऊ रामपुरिया said...

परिवार व इष्ट मित्रो सहित आपको दीपावली की बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं !
पिछले समय जाने अनजाने आपको कोई कष्ट पहुंचाया हो तो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ !