Sunday, February 24, 2008

अपना सा इन्द्रधनुष

आज बरसात तो नही हुई कहीं पर

धूप फिर क्यों लग रही धुली सी

शायद रोयी होगी

उसके आँसूओं से बना इन्द्रधनुष
तुम्हारे आँचल की तरह लहराया

मुझको भी तब याद आया

वो धनक जो हमने था बनाया

धूप से रँग उधार लेकर

तुम्हारे होठों सा बाँक देकर

मन के इस कोने से

मन के उस कोने तक सजाया

उसपर एक सपना बांधा
ताकि जब हम वापिस आयें

इसको पहचान पायें

बहुत दूर तक भटकने के बाद वापिस आए

धनक तो था

पर उसपर बँधा सपना नही था

तुम्ही कहो कैसे उसे अपना कहते
किस तरह उसके साथ रहते

इसीलिए उसे छोड आया

आज फिरसे धूप धुली है

सोचता हूँ कुछ साफ रँग इससे माँग लूँ

एक नया इन्द्रधनुष बनाऊं
और उसपर फिर एक सपना टाँग लूँ

4 comments:

Anonymous said...

जब भी समय मिलता है आपका ब्लॉग ज़रूर पढ़ता हूँ, यह कविता बहुत मनभावन लिखी आपने!

..मस्तो... said...

hmmm...
baad meN bolunga ispe...

Love..Masto...!!

डॉ .अनुराग said...

आज फिरसे धूप धुली है

सोचता हूँ कुछ साफ रँग इससे माँग लूँ

एक नया इन्द्रधनुष बनाऊं
और उसपर फिर एक सपना टाँग लूँ

behad khoobsurat lines hai....man moh liya in lines ne ......

Piyush k Mishra said...

आज फिर से धूप धुली धुली सी है....

बहुत छु गयी ये कविता.हर पंक्ति खूबसूरत है.