Wednesday, July 8, 2009

क्यों लालगढ़...

हाल ही में पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में हुई हिंसा पर बहुत चर्चा हुई। पुलिस एक्शन से लालगढ़ को मओवादियों से मुक्त भी कराया गया। पर भयावह बात ये है की अराजक तत्वों को लोगो का साथ मिला। कुछ हद तक एक जन आन्दोलन सा बना जो बाद में उग्र और हिंसात्मक होता गया और उसका फायदा तथाकथित मोविद्यो ने उठाया। विचारणीय है की क्या हम और हमारी व्यवस्था प्रणाली इंडिया में बैठकर भारत की समस्याओं को अनदेखा कर रहे हैं और क्या भारत अब इसी अनदेखी से नाराज़ होकर अपनी नाराजगी को ज़ाहिर करने के तरीके खोज रहा है?

उत्तर शायद इतने सरल नही...पर उत्तर की खोज का पहला पड़ाव है प्रश्न पूछना। ये रचना इन्ही प्रश्नों को उकसाने का एक प्रयास मात्र है.......


कई हाथ उठे, कई आवाजें
कई बरछी, बल्लम, भाले
कुछ सिसकियाँ जो ग्रंथो के शून्यो में खो गयी
कुछ हूक जो संख्याओं के अंधेरे में सो गयी
ऐसे ही गिरते, उठते , खोते, सिसकते
घिसते, पिसते, उंघते ,ठिठकते
पलों ने अपनी आखिरी बगावत की थी
आज लालगढ़ की लाल मिटटी नें
अपनी सोई प्रथाओं से अदावत की थी

भारी बूट चले
रौंदने इस उन्माद को
बयोनेट की नोक से
रोकने इस विवाद को
चर्चा, गोष्ठी और विचार मंथन
उनमे उठे कई कम्पन
कैसे हो इसका दमन
प्रेम से या बल से
या फिर किसी राजनैतिक छल से
कैसे भी हो, होना चाहिए
लालगढ़ जो जागने को आतुर है
उसे फिर से सोना चाहिए
पर....

कोई ये नही पूछता
क्यों इस मिटटी ने लहू का स्वाद चखना चाहा है
बस यही तो बूझना था....
इस मिटटी नें आखिरी बार कब भरपेट खाना खाया है !!

4 comments:

कुश said...

एक कवि का काम बखूबी किया है आपने..

डॉ .अनुराग said...

दुःख ये है की आदिवासी का इस्तेमाल सभी ने किया अपने फायदे के लिए...ओर आगे भी त्रासदी उन्होंहे भोगनी है....

दिनेशराय द्विवेदी said...

आदिवासी समझदार हो रहा है।

ताऊ रामपुरिया said...

इष्टमित्रों और परिवार सहित आपको, दशहरे की घणी रामराम.

रामराम.