Friday, July 25, 2008

शहरी मन भी बदलता है....(३)

....आगे

"समौ चिद धस्तौ न समं विविष्टः सम्मातरा चिन नसमं दुहाते ।यमयोश्चिन न समा वीर्याणि जञाती चित्सन्तौ न समं पर्णीतः ॥" ऋग्वेद (१०.११७)

दोनों हाथ एक जैसे हैं, पर उनके द्वारा किया गया श्रम अलग है, दो गाय यद्यपि एक ही माता से जन्म लें, पर उनकी दूध देने की क्षमता अलग है। जुड़वा बच्चो का वीरत्व एक जैसा नही होता इसी तरह दो आत्मीयों के धन और साधन भी अलग होते हैं।

जहाँ कुछ ज़मीन जाने के बाद हताश होकर बैठ गए वहीं कुछ ऐसे लोग भी मिले जिन्होंने इसे एक नया मौका माना और इससे लाभ उठाने की सोची। ऐसे ही व्यक्ति का नाम शक्तिनगर के हर व्यक्ति को पता है...और वो नाम है मोती।

हॉस्टल में आने के तुंरत बाद लोगो ने मोती के ढाबे की तारीफ़ कर दी। सन्डे का डिनर मोती के ढाबे पर ...और ये एक परम्परा सी थी। हर नए आने वाले को बड़ी भक्ति श्रद्धा के साथ मोती के ढाबे का माहात्म्य बताया जाता और पहले ही रविवार को दर्शन के लिए ले जाया जाता था। सो रविवार आया और हमें भी ले जाया गया। रेलवे स्टेशन के पास एक टीन के छप्पर वाला ढाबा और जहाँ बहुत सी बेंच रखी थी। लगता था पूरा शक्तिनगर यहीं आया है। हमारे शहरी मन ने नाक-भौं सिकोडी और मन ही मन दिल्ली के चमकदार रेस्टोरेंट को याद किया। मेनू कार्ड नदारद था और फिक्सड थाली। खैर, थाली मंगवायी गयी.....गरम गरम रोटी, खूब कसकर बनायी हुयी अरहर की दाल और उसमे घी, आलू गोभी की सब्जी और रायता। बहुत ही सीधा सपाट खाना पर स्वाद ठीक उन दिल्ली के चमकदार रेस्टोरेंट जैसा नही था.....बल्कि लगा की माँ ने दिल्ली से पैक करके भेजा हो। इतने में एक अधेढ़ सा आदमी आया, जिसने घुटने तक की धोती पहनी थी और एक सफ़ेद सी शर्ट। बहुत विनय के साथ सबको पानी दे रहा था, कहीं किसी को सलाद। हमारी बेंच पर आकर रुका...हमारी थाली की रोटी को छुआ और फिर आवाज़ लगायी..."ऐ बबुआ...देख इनको ठंडा रोटी परोस दिया है...एक गरम रोटी लाओ" और एक गरम रोटी मंगवाकर उसपर घी लगाकर मुझे दिया और कहा..."काहे नही कहा की रोटी ठंडा है..हम नही देखते तो ऐसे ही खा जाते"। ना जाने क्यों...मेरी शहरी आँखें कुछ नम सी हो गयी और अचानक माँ की याद आने लगी।

बाद में पता चला की यही मोती है। जब ये ताप बिजली घर बना तो मोती के पिताजी की ज़मीन भी ले ली गयी। इन लोगो ने कोई नौकरी नही मांगी बल्कि मोती के पिताजी ने वहाँ बसी कालोनी में दूध बेचने का काम शुरू किया। मोती ने भी अपने पिटा के साथ काम शुरू किया और फिर एक चीज़ देखी। उन दिनों बहुत से लोग वहाँ बिना अपने परिवार के रहते थे और खूब सारे प्रशिक्षु तो थे ही। इन सबकी एक समस्या थी....खाना। तो मोती ने एक ढाबा खोला और वहाँ पर एकदम घर जैसा खाना बनाकर खिलाने लगा। अंधा क्या चाहे...दो आँखें....बस कालोनी के लोगो को सस्ते में अच्छा खाना मिल जाता और वहाँ पर बैठकर दो सुख-दुःख की बातें भी हो जाती। साल बीतते गए पर मोती ने न अपना मेनू बदला ना लोगो से अपना व्यवहार। शक्तिनगर में मोती की परम्परा पड़ चुकी थी। अब हर आने वाले को लोग उसके ढाबे पर ले आते और बाकी मोती महाराज अपनी गरमागरम रोटी से उसे बाँध लेते। इश्वर ने मोती को काफ़ी सुपुत्र दिए जिनकी गिनती ईकाई में नही दहाई में है। सो आज मोती ने उनको भी ढाबे खोलकर दे दिए हैं। साथ ही अब मोती के पास ट्रक हैं जिन्हें कालोनी के लोग ट्रान्सफर पर जाते समय किराये पर ले सकते हैं।

इस कंपनी ने जब २५ साल पूरे किए तो प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता निर्देशक श्री श्याम बेनेगल को एक फ़िल्म बनाने के लिए कहा गया और उन्होंने भी अपनी रिसर्च के बाद मोती के चरित्र को फ़िल्म में ढाला और मोती का अभिनय किया प्रसिद्द अभिनेता श्री रघुवीर यादव ने । मोती महाराज ने अपने पिता के चरित्र का अभिनय किया.


मोती अनपढ़ है...उसे अंग्रेज़ी तो नही आती। उसने एम. बी. ऐ. भी नही किया और शायद इसी वजह से इतना आगे बढ़ पाया। हमारे प्रबंधन संस्थान केवल प्रबंधक बनाते हैं...अपने पैरो पर खड़े होने वाले उद्यमी नही। केवल चेष्टा और व्यवहार से भी व्यक्ती आगे बढ़ सकता है...मोती उसी की मिसाल है। ऐसे कितने ही मोती हमारे गाँव देहात में होंगे पर हम उनको नही देखते। हमें सफलता के लिए विदेशी आयाम और प्रमाण-पत्र चाहिए। शहरी मन प्रशंसा के लिए भी विदेशी मापदंड खोजता है।

शक्तिनगर में कुछ ही हफ्ते बीते थे और मै वहाँ के जीवन से परिचित हो रहा था।

......क्रमशः

5 comments:

ताऊ रामपुरिया said...

ऐसे कितने ही मोती हमारे गाँव देहात में
होंगे पर हम उनको नही देखते।
हमें सफलता के लिए विदेशी आयाम और प्रमाण-पत्र चाहिए।
शहरी मन प्रशंसा के लिए भी विदेशी मापदंड खोजता है।

आपका मोती अपनी और खींचता है ! सतता से आपने व्यंग भी जोरदार किया है ! चालू रखिये .. देखे अब आगे
क्या होता है !
और हाँ फ़िल्म का नाम भी बता देते ? जरुर देखना चाहूँगा !




c

डॉ .अनुराग said...

दिमाग पर जोर देकर इस कोशिश में उलझा हूँ की श्याम बेनेगल की उस मूवी का क्या नाम था ?सुबह सुबह जिस तरह से आपने रेस्टोरेंट के खाने का जिक्र किया है ,पेट में हुड़क सी उठ खड़ी हुई है ....एक खाका सा खिच रहा है इस शक्ति नगर का दिमाग में .....लिखते रहिये आपको पढ़ना आनंद देता है ओर इस विधा में तो आप ........क्या कहूँ ?

Abhijit said...

woh ek corporate movie thi...uska naam hai "tamaso maa jyotirgamay". Ise publicly release nahii kiya gaya.

Mai koshish karoonge ki agar iski CD mile to upload kar doon

कुश said...

मोती के बारे में पढ़कर मान प्रफुल्लित हो गया.. अच्छा हुआ आपने फिल्म का नाम बता दिया.. वरना पेट में गड़बड़ रहती..

एक पिक्चर सी बनती जा रही है.. आप जमाए रहिए अगली कड़ी का बेसब्री से इंतेज़ार है

meeta said...

आपकी बात कहने की रीत बहोत ही अच्छी है .... मुझे तो अमिताभ की काला पत्थर मूवी का गाँव याद आ गया..... असल जिन्दगी में तो गाँव में रहने का मौका बहोत कम मिला है ..... तो आपकी ये कथा वाही कमी पूरी कर रही है ...