उजडे से इस चाँद के बदले
रात ने माँगी नीँद
पर मिली नही
ख़्वाबों ने हाथ खींचे
रात खडी रही आँख मींचे
पर न नीँद आयी
ना ख्वाब कोई
रात, फिर एक रात
बैरंग सी सोई
एक टूटी फूटी ज़िंदगी
बिछी है मेरे कमरे में
किसी चारपाई की तरह
मैं सोता हूँ उसपर
तो पायों मे चरमराती है बातें
पुराने मूँज सी उधडती हैं यादें
ढीले बदन के साँचे मे ये भी ढलती है
और एक रात ज़िन्दगी के साथ गुज़रती है
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1 comment:
अच्छी कवितायें हैं, लिखते चलिये।
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