पसीना सुर्ख नही होता
परा बहता वो भी है
रगों के परदे में नही
बेशर्म होकर चहरे पर आता है
लहू के बहुत किस्से हैं
लहू बोलता है
पर पसीना बेज़ुबान है
इसीलिये चुप-चाप ही गिर जाता है
अश्क भी गिरते हैं
उनके गिरने में शायरी है
पसीना आमा सी शह है
किसी ग़ज़ल का दाम कहाँ वो पाता है
जज्बातों se सरोकार नही
ललकार और प्यार से परे
सिर्फ भूख के डर से
पसीना पानी की तरह बहता जाता है
पसीना बहुत गरीब है
महलों में उसकी पहचान नही
ग़ुरबत से भरे खेत खलियान में
अक्सर ज़मीन पर पढा पाया जाता है
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