साये सरक से जाते हैं
एक खाली रूह गुज़र रही है
वक़्त के गलियारे से
खोखली ज़ंज़ीरों मे उलझती
गुमनाम एक अँधियारे में
पोली दीवारों से टकराती
रूह का एहसास जा चुका है
बहुत कुछ इस दिल की तरह
जो अब टूटते हुये
एकदम सख्त हो गया है
कहीँ दूर के वक़्त में
एक घनी छाँव थी
रूह को तस्कीन थी
मगर छाँव अँधेरे मे नही होती
और रूह धूप से नाराज़
दोनों ठीक थेअपनी जगह
रूह जो धूप को भुलाना चाहती थी
धूप जो रूह को जलाना चाहती थी
आज अधजली सी रूह
धूप से सुलह कर चुकी है
इन सरकते सायो मेएक होकर
रूह खुद छाँव बन चुकी है
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