तुम लिखते विप्लव के गीत
देते प्रलय को आमंत्रण
सृष्टि की गर्भ व्यथा जान
क्यों करते काल का आवाहन
क्या मोह नही है तुमको भी
इन रँगों से, इन छन्दों से
इस भ्रमर गीत के गुँजन से
मायावी शब्दों के बन्धों से
फिर क्यों इस पुलकित उपवन में
तुम दहन कामना करते हो
नव वसन्त की हरी शिरा में
पतझड़ का विष क्यों भरते हो
तुष्ट नही क्या सुख के क्षण से
चिर दुखों का पथ चुनते हो
अन्तर से लेकर मर्म तंतु
एक व्यथा कथा तुम बुनते हो
किस समाज ने, किस रीति ने
किस रूढि ने क्लान्त किया
बन चिता अनल जो दहके तुम
तो किस ज्वाला को शांत किया
हिमगिरि सा लेकर स्थिर मानस
शांत किया अस्थिर मन को
शब्दों मे भर पिघला लोहा
तुम परुष बनाते जन-जन को
ये कुलिश कुठार कठोर छन्द
हैं फिर भी स्निग्ध सरल प्राण
कवि कैसे समझूँ मन तुम्हारा
सब हार के गाये जो जय-गान
कवि अपना मन दो मुझको
मैं बन कर देखूँ दावानल
सुधा-मोह से मुक्त हो जाऊँ
मैं बनूँ काल का हालाहल
5 comments:
अच्छा प्रशन है. लिखते रहें
कवि अपना मन दो मुझको
मैं बन कर देखूँ दावानल
सुधा-मोह से मुक्त हो जाऊँ
मैं बनूँ काल का हालाहल
जिस दिन कवि मन मिलेगा ,मुश्किल ओर बढ़ जायेगी .....कविता बहुत प्यारी है हमेशा की तरह
बहुत बढिया..शुभकामनाऐं.
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
आपको पढ़ना हमेशा एक सुखद अनुभूति देता है.. इस बार भी एक सुंदर रचना.. बधाई स्वीकार करे
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