.....आगे
" एते तये भानवो दर्शतायाश्चित्रा उषसो अम्र्तास आगुः । जनयन्तो दैव्यानि वरतान्याप्र्णन्तो अन्तरिक्षा वयस्थुः ॥ "
देखो....सुंदर उषाकाल के चिरंतन वैभव को , जो अपने विभिन्न रंगों से सजकर हमारे पास आयी हैं। आकाश को भरते हुए और शुभ कर्मों को बढाते हुए इनका आकाश में आरोहण हुआ है।
ऋग्वेद की ये ऋचा ऎसी ही किसी सुबह के लिए लिखी गयी होगी। सुबह के इस अपूर्व दृश्य से ख़ुद को अलग किया और प्रशिक्षण केन्द्र जाने की तैयारी में जुट गए। कुछ नये साथियों से मुलाक़ात हुयी जो यहाँ कुछ महीने पहले आ गए थे और जैसा की ऎसी मुलाकातों में होता है....उन्होंने यहाँ के प्रशिक्षण केन्द्र और पूरी फैक्ट्री के लोगो की अच्छाई और बुराई बता दी। सबसे मजेदार बात ये होती थी की वो सब इंजिनियर थे और मैं मानव संसाधन में...और सबसे ज़्यादा बुराई वो मानव संसाधन की ही करते थे। बड़ा अजीब सा लगता था...और मैं चुपचाप बैठा ये सब सुनता था। उनके अनुसार प्रशिक्षण केद्र के प्रबंधक महोदय साक्षात रावण के अवतार थे और उनके नीचे सब खर दूषण। बाकी मानव संसाधन विभाग भी इसी तरह पुरातन काल के राक्षसों का ही पुनर्जन्म था। ये सब सुनकर सोचता रहा की कुछ महीने बाद मुझे न जाने कौनसे असुर की पदवी मिलेगी? वैसे मेरे आलसीपन को देखते हुए कुम्भकर्ण ही सबसे फिट बैठेगा पर आगे भाई-लोगो की मर्जी....
इन्ही सब को सुनते सुनते सबसे परिचय हुआ और लगा की ये लंका इतनी बुरी भी नही है। कुछ राक्षस काफी अच्छे लगे। सबसे पहले अशोक जी मिले...कौन अशोक जी...अरे वही...रावण के अवतार...प्रशिक्षण केन्द्र वाले। बहुत डरते डरते उनके कमरे में प्रवेश किया था और उनको देखकर डर कुछ कम हुआ। उनका प्रशस्त ललाट उनके सिर के हर सिरे तक फैला हुआ था और काफी चमक भी रहा था। बहुत ही आराम से बोलते थे...वाणी के ज़ोर और गति दोनों के लिहाज से और गज़ब के मजाक करते थे। कुछ देर बात-चीत के बाद उन्होंने सबसे मिलवाया। प्रशिक्षण केन्द्र क्या....अद्भुत से कुछ प्राणियों का जमघट था। एक महिला मिली, जो रिसेप्शन टेबल के ऊपर आलथी पालथी मारकर बैठी थी। पता चला की इनकी ज़मीन सरकार द्वारा ली गयी थी और बदले में नौकरी दी गयी। किसान की बेटी ऑफिस में परिचारिका बन गयी और समय के साथ साथ ज़मीन के साथ साथ अपनी सुध बुध भी खो बैठी। सरकारी नौकरी में निकाला नही जाता, सिर्फ़ ऐसी जगह तबादला करते हैं जहाँ आप कम से कम नुकसान कर सकें...सो इन्हे भी इस केन्द्र में बिठा दिया गया। अब इनकी तनख्वाह पर इनके लड़के अपना खर्चा चलते हैं और सुनते हैं ..गाहे बगाहे कुछ काम भी करते हैं। बीच बीच में ये लड़के अपनी अम्मा को लोन लेने के लिए भी उकसाते हैं। एक बार ये महिला आई और कहा.."हमका मोटर साइकिल के लिए लोन चाही"। अब सरकारी कानून कहता है की लोन उसे मिलेगा जिसके पास लाइसेंस हो। सो उनके सुपुत्रों ने ५० साल की उस प्रौढा का मोटर साइकिल लाइसेंस भी बनवा दिया...और वो भी फर्जी नही साहब....बिल्कुल चमचम करता हुआ, सरकारी मुहर वाला असली लाइसेंस। धन्य है भारत.....जहाँ एक मानसिक रूप से विचलित प्रौढा का ड्राइविंग लाइसेंस भी बन जाता है और हम कहते हैं की नारी सशक्तिकरण नही हुआ!!!
एक और इसी प्रकार का व्यक्ति दिखा...जिसे उसके लड़के सहारा देकर लाये और उपस्थिति दर्ज कराने के बाद ले गए। ये भी एक ऐसे ही भू-विस्थापित व्यक्ति था...जिसने ज़मीन भी दे दी, नौकरी भी ले ली पर आत्म-निर्भर किसान से नौकर बनने का मानसिक सफर तय नही कर पाया और देसी शराब का आदी हो गया।
ऐसे कितने और भी लोग मिले। सरकार कुछ पैसा देती है और उस पैसे को भुनाने के लिए शराब के ठेके खुल जाते हैं। एक -आध साल में पैसा ख़तम...ज़मीन गायब, और फिर अगर नौकरी भी न मिले तो शहर का रास्ता पकड़ना। गाँव से शहरी झुग्गियों तक की यात्रा का अंत तो मेरी शहरी आंखों ने देखा था...यहाँ उस यात्रा की शुरुआत भी देख ली। कहते हैं कि जब यहाँ पर इतने बाँध और ताप बिजली घर बने तो तत्कालीन प्रधान मंत्री ने कहा की हम इस जगह के लोगो के जीवन का स्टार स्विट्जरलैंड के बराबर कर देंगे। लोगो ने विश्वास किया था और ज़मीने सौंप दी.....काश कि इन लोगो को उस पल अविश्वास में पला-बढ़ा शहरी मन मिल जाता!
......क्रमशः
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6 comments:
सरकारी नौकरी में निकाला नही जाता, सिर्फ़ ऐसी जगह तबादला करते हैं जहाँ आप कम से कम नुकसान कर सकें..
बिल्कुल ठीक कहा आपने.. कितनी ही गहरी बाते समेटे हुए है आपका ये लेख.. बहुत बधाई.. अगली कड़ी का बेसब्री से इंतेज़ार है
बहुत अच्छा लग रहा है आपका प्रवाहमय वृतांत..जारी रहिये. अगली कड़ी का इन्तजार कर रहे हैं. शुभकामनाऐं.
काश कि लोग ये समझ पाते कि पैसा ही सब कुछ नही होता .....पर हम लोग यही समझ पाते है कि पैसा बहोत कुछ होता है ...और वो बहोत कभी भी कम पड़ सकता है ... आपने एक ही झटके में प्रकृति कि खूबसूरती को जिंदगी कि कड़वी सच्चाई के सामने रख दिया...
कृपया ऐसे ही धारा प्रवाहित होने दीजिये !
बहुत अच्छा लगा ! अगली कडी का
इंतजार करना ही पडेगा ! बहुत सुंदर भई !
धन्यवाद !
पढ़ रहा हूँ ओर ऐसा लगता है जैसे शहर को समझने लग रहा हूँ,उसकी नब्ज़ पकड़ने लगा हूँ....
badhiya vratant hai...jari rakhiye.
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