आज बरसात तो नही हुई कहीं पर
धूप फिर क्यों लग रही धुली सी
शायद रोयी होगी
उसके आँसूओं से बना इन्द्रधनुष
तुम्हारे आँचल की तरह लहराया
मुझको भी तब याद आया
वो धनक जो हमने था बनाया
धूप से रँग उधार लेकर
तुम्हारे होठों सा बाँक देकर
मन के इस कोने से
मन के उस कोने तक सजाया
उसपर एक सपना बांधा
ताकि जब हम वापिस आयें
इसको पहचान पायें
बहुत दूर तक भटकने के बाद वापिस आए
धनक तो था
पर उसपर बँधा सपना नही था
तुम्ही कहो कैसे उसे अपना कहते
किस तरह उसके साथ रहते
इसीलिए उसे छोड आया
आज फिरसे धूप धुली है
सोचता हूँ कुछ साफ रँग इससे माँग लूँ
एक नया इन्द्रधनुष बनाऊं
और उसपर फिर एक सपना टाँग लूँ
4 comments:
जब भी समय मिलता है आपका ब्लॉग ज़रूर पढ़ता हूँ, यह कविता बहुत मनभावन लिखी आपने!
hmmm...
baad meN bolunga ispe...
Love..Masto...!!
आज फिरसे धूप धुली है
सोचता हूँ कुछ साफ रँग इससे माँग लूँ
एक नया इन्द्रधनुष बनाऊं
और उसपर फिर एक सपना टाँग लूँ
behad khoobsurat lines hai....man moh liya in lines ne ......
आज फिर से धूप धुली धुली सी है....
बहुत छु गयी ये कविता.हर पंक्ति खूबसूरत है.
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