कभी धर्म ,कभी समाज, कभी देश
कभी और कुछ नही
तो सिर्फ भाषा या वेश
जिसने भी दी कोई पहचान
मैं समझता था उसका अहसान
पर बाद मे ये भेद जाना
उनकी प्रखर बुद्धि को पहचाना
आसान किश्तों के लोन की तरह
ये पहचान की एक मुश्त रकम देते हैं
आपको पता भी नही चलता
कब आत्मा को गिरवी रख लेते हैं
अब वो रीति-नीति के नये प्रलोभन फेंकते हैं
उनमे हँसते और फँसते हुये हम
दुनिया अब दूसरे के चश्मे से देखते हैं
8 comments:
कभी धर्म ,कभी समाज, कभी देश
कभी और कुछ नही
तो सिर्फ भाषा या वेश
जिसने भी दी कोई पहचान
मैं समझता था उसका अहसान
पर बाद मे ये भेद जाना
bahut sunder likha hai
दुनिया अब दूसरे के चश्मे से देखते हैं
बहुत सुंदर और गहन भाव हैं !
शुभकामनाएं !
बहुत जबरदस्त भाव व्यक्त किए हैं आपने !
धन्यवाद !
आसान किश्तों के लोन की तरह
ये पहचान की एक मुश्त रकम देते हैं
बहुत गहरी और मार्मिक रचना है !
बधाई आपको !
गहरी रचना है.
bahut achchi abhivyakti...
क्या कहूँ भाई......कहने को कुछ नही है....सब कुछ तो तुमने कह दिया है....इस भाषा में पीड़ा भी है ओर सचाई भी.....
परिवार व इष्ट मित्रो सहित आपको दीपावली की बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं !
पिछले समय जाने अनजाने आपको कोई कष्ट पहुंचाया हो तो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ !
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