कौन?
अच्छा.... मौत
आओ दोस्त, बैठो
कुछ बात करो , कुछ कहो, कुछ सुनो,
कुछ मेरे साथ किस्से बुनो
कुछ किस्से शहरज़ाद के
जिसने तुमको बहलाने के लियेसुनायी थी
कहानियां एक हज़ार एक
और वो जो तुमने देखा होगा
जंग के मैदानो में
जिस्म की दुकानो में
शहर के वीरानों में
टूटते मकानो में
उन सबके किस्से कह सकते हो
आख़िर कब तक इन सबको सीने मे लिये रह सकते हो
जानता हूँ
तुम्हे कोई नही चाहता
तुमको कोई गले नही लगाता
कोई नज़र नही मिलता
कोई घर नही बुलाता
जो रोज़ भूख के मारे तुमसे मदद माँगता है
तुम्हारे आने पर
वो भी तुमसे दूर भागता है
तुम निराश मत होना
ये सब अभी कच्चे हैं
तुम्हारी उमर के सामने बच्चे हैं
धीरे-धीरे तुमको समझ जायेंगे
फिर तुम्हरी गोद मे सिर रखकर
हमेशा के लिये सो जायेंगे
4 comments:
kavita sunne mei to aachi lagti hai par hakikat mei har insan marne se darata hai.
जो रोज़ भूख के मारे तुमसे मदद माँगता है
तुम्हारे आने पर
वो भी तुमसे दूर भागता है
pahli baar jab padhi thi ye kavita maine to bhi sabse pahle isi baat par dhyaan gaya tha.kitni sateek baat hai.
marne se darr sabko hai jabki.shayad maut ka darr utna nahin hota jitna jeene ki ichha aakarshit karti hai insaan ko.jeevan chahe jitna bhi kathin ho.
क्या बात है.. बहुत ही उम्दा
bahut umda lekhni...
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