जो गीत कहा था गाने को
मन ही मन बस गा पाया
खामोशी के बोल लिए
बेबाक सुरों ने जो गाया
वो गीत अगर तुम सुन पाये
या बाँध के गर तुम रख पाये
इस मन के पिंजड़े मे ही कहीं
तब यही समझना दोस्त मेरे
मैं अब भी तुमसे दूर नही
गाते गाते जो एक हुआ
हम दोनों के प्राणों से
अंतर्मन में उतर गया
डूबा था जो इन भावों में
उसकी बिखरी कलियों में गुम
महका करते अब तक तुम
जैसे निशिगंधा खिले कहीं
तब यही समझना दोस्त मेरे
मैं अब भी तुमसे दूर नही
गुलमोहर से लेकर अग्नि
फागुन का रँग लगाया था
बेलाग गीत के रँगों से
एक बीता पन्ना सजाया था
याद आती है वो छुपी किताब
और उसमे सहेजा एक गुलाब
जो दिया था मैंने तुमको कभी
तब यही समझना दोस्त मेरे
मैं अब भी तुमसे दूर नही
ये अपनी ही एक पुरानी बांगला कविता का अनुवाद किया है। इस अनुवाद में हमारे मित्र श्री पीयूष नें बहुत मदद की है, जिसके लिए उनका बहुत बहुत धन्यवाद ।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
7 comments:
याद आती है वो छुपी किताब
और उसमे सहेजा एक गुलाब
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति भइया!
आपको बहुत दिनो से याद कर रहा था.. चलो आज आपके ब्लॉग पर कुछ मिला..
बहुत बढ़िया है भाई. बधाई.
याद आती है वो छुपी किताब
और उसमे सहेजा एक गुलाब
जो दिया था मैंने तुमको कभी
तब यही समझना दोस्त मेरे
मैं अब भी तुमसे दूर नही
vah......
निसंदेह एक अच्छी कविता...ये पंक्तिया बेहद पसंद आई.....आप शायद मसरूफ थे पिछले दिनों.....
sunder abhivyaktee ...
याद आती है वो छुपी किताब
और उसमे सहेजा एक गुलाब
जो दिया था मैंने तुमको कभी
तब यही समझना दोस्त मेरे
मैं अब भी तुमसे दूर नही
waah...bahut achcha likha...khoobsurat bhaav.
मैं अब भी तुमसे दूर नहीं....ये पंक्ति कमाल की है!!
यादों की दराज खोलती सी...मद्धम मद्धम सी आगे बढ़ती हुई...
बहुत प्यारी रचना है.
मैं अब भी तुमसे दूर नहीं..
yeh poem test bhi leti hai..aur vishwaas bhi deti hai...apni dosti barkarar hai...
aapko ek khoobsoorat kavita aur uske khoobsoorat anuvaad ke liye badhai..
likhte rahe...
Post a Comment