मेरी फितरत से नाराज़ मेरे दोस्त सुनो
मेरे रंगों के बिखरे सभी तार बुनो
कि तुमको भी कोई ख्वाब नया मिल जाये
मेरी फितरत पर लगा दाग यों ही धुल जाये
आसमाँ से भी तो पूछो ये बरसता क्यों है
आँख में बूँद लिए दिल ये तरसता क्यों है
कि तुमको भी कोई टूटा ख्वाब मिल जाये
मेरी फितरत पर लगा दाग यों ही धुल जाये
नींद के पन्ने इसलिए मैंने संभाले हैं
रात भर चलते रहे , पाँव भर छाले हैं
कि तुमको भी छालो से सना ख्वाब कोई मिल जाये
मेरी फितरत पर लगा दाग यों ही धुल जाये
बस्तियों से अपना रुख ही जिसने मोड़ लिया
रेत की उड़ती छाँव को ही खुद पे ओढ़ लिया
कि तुमको भी ख्वाब बंजारा कोई मिल जाये
मेरी फितरत पर लगा दाग यों ही धुल जाए
"ये कविता हमारे मित्र 'मस्तो' की एक टिप्पणी से प्रेरित है, इसीलिए उन्ही को समर्पित भी है"
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3 comments:
बहुत बढिया रचना है।बधाई।
आसमाँ से भी तो पूछो ये बरसता क्यों है
आँख में बूँद लिए दिल ये तरसता क्यों है
कि तुमको भी कोई टूटा ख्वाब मिल जाये
मेरी फितरत पर लगा दाग यों ही धुल जाये
paramjeet ji....aapka bahut bahut dhanyawaad
SHUKRIYA MASTO KA KAH DETE HAI,ki hame ye padhne ko mili...
likhte rahiye ,har style aapko suit karta hai "BABU MOSHYA"
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