अब क्या कहें?
अद्भुत सी स्थिति दिखाई पड़ती है। खबरों के चैनल बहुतायत में होने के कारण खबरों का अकाल पड़ गया है। अकाल कि स्थिति मे मनुष्य जो मिले जैसा मिले वैसा ही भोजन कर लेटा है..आजकल खबरों की भी कुछ ऎसी ही स्थिति है। आप केवल कुछ अलग हटकर चलिए, तो आप खबर हैं। मज़े की बात ये है कि अगर आप बिल्कुल सीधे पथ पर भी चलते हैं, तो भी आप खबर हैं।
जब खाद्यान्न की कमी हुयी, तब मनुष्य ने कृत्रिम खाद्यो को खोजा। भोजन के सार तत्वों को लेकर आसानी से पचने वाली कैप्सूल बनाकर लोगो को दे दी गयी। आजकल खबरों की भी ऐसी ही अवस्था है। अब सोनिया जी हमेशा ही कोई नयी बात नही कर सकती (हालांकि इस पर भी शक है कि कर सकती भी हैं कि नही), आडवानी जी हमेशा रथ पर आरूढ़ होकर नही रह सकते, बाजपेयी जी वैसे ही योग-निद्रा मे चले जाते हैं और लालू जी को रेल भी चलानी है। ऎसी स्थिति मे फिल्म अभिनेता काम आते हैं। मगर वो भी कितनी देर? पहले उनके सामाजिक औसत से अधिक विवाह-विच्छेद और बाक़ी संबंध लोगो मे एक उत्सुकता जागते थे। आजकल ये सब "कहानी घर घर की' हो गया है। कतिपय धारावाहिकों ने इन सबका इतना दिखा दिया कि आजकल ऐसी स्थितियाँ किसी को असाधारण नही लगती...इसीलिये ये अब खबरों के दायरे से बाहर हो गया है।
तो अब क्या बचा....मरते किसान और इस प्रकार कि अन्य दुर्घटनाएं तो हाशिये से बाहर ही नही आ पायी, खबर तो दूर की बात है। हाँ, दुर्घटना अगर किसी बलात्कार से जुडी हो, उसके लिए कुछ उम्मीद की जा सकती है। यदा-कदा सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष मे जाकर और फिर सकुशल लौटकर कुछ दिनों कि खबरों का जुगाड़ कर लेटी हैं। मगर चौबीस घंटे चलते रहने वाले न्यूज़ चैनल की ज़रूरत के सामने ये सब ऊँट के मुँह मे जीरा है।
इतना तो स्पष्ट हो गया की खबरें कम हैं और उनकी माँग ज़्यादा.
क्रमशः...........
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1 comment:
दादा ...बहुत बढ़िया कलम चलाई है...!!
मैं भी कुछ एसा ही लिखने की सोच रहा था...!!
अगले अंक का इंतेज़ार है... :-)
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